पृथ्वी पर ही जीवन है, बचा लें!

पृथ्वी दिवस पर विशेष

प्रो. गिरीश्वर मिश्र 

अपने दौड़ भाग भरे व्यस्त दैनिक जीवन में हम सब कुछ अपने को ही ध्यान में रख कर सोचते-विचारते हैं और करते हैं. हम यह भूल जाते हैं कि यह पृथ्वी जिस पर हमारा आशियाना है मंगल, बुध की ही तरह का एक ग्रह है जो विशाल सौर मण्डल का एक सदस्य है . पृथ्वी के भौतिक घटक जैसे स्थल, वायु, जल, मृदा आदि जीव मंडल में जीवों को आश्रय देते हैं और उनके विकास और सवर्धन के लिए ज़रूरी स्रोत उपलब्ध कराते हैं. यह भी गौर तलब है कि अब तक के ज्ञान के हिसाब से धरती ही एक ऐसा ग्रह है जहां जीवन है. इस धरती पर हमारा पर्यावरण एक  परिवृत्त  की तरह है जिसमें वायु मंडल, जल मंडल, तथा स्थल मंडल के अनेक भौतिक और रासायनिक तत्व मौजूद रहते हैं. जैविक और अजैविक दोनों तरह के तत्वों से मिल कर धरती पर संचालित होने वाला पूरा जीवन-चक्र निर्मित होता है . इस जीवन-चक्र का आधार सिद्धांत विभिन्न तत्वों का सह अस्तित्व है क्योंकि अकेले कोई भी पर्याप्त नहीं होता है. सत्य यही है कि दूसरों से जुड़ कर ही जीवन सम्भव हो पाता है. इसलिए जो नैसर्गिक रूप से उपलब्ध प्रकृति है वह जीवन के लिए आधार प्रदान करती है. हमारा अपना अस्तित्व उस समग्र का एक बड़ा छोटा हिस्सा होता है. जीवन को चिरायु और गतिशील बनाए रखने के लिए प्रकृति के विभिन्न अवयवों के बीच सतत सामंजस्य बनाए रखना ज़रूरी होता है.

भारत में प्राकृतिक संसाधनों को संग्रह कर उपभोग किया जाता रहा परंतु बाज़ार केंद्रित अर्थ व्यवस्था के साथ संसाधनों के असीमित उपयोग की लालच बढ़ी. अंग्रेज़ी उपनिवेश के दौरान उनके अपने हितों के लिए जंगलों की कटाई और खनन का दौर शुरू हुआ और प्राकृतिक सम्पदा का घोर शोषण आरम्भ हुआ. निर्वनीकरण और बाँधों का निर्माण आज भी जारी है. 

प्रकृति ये सभी पक्ष भारतीय चिंतन में आरंभ से ही महत्व पाते रहे हैं. वस्तुतः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के तत्व जीवन से घनिष्ठ रूप से सम्बंधित हैं. वनस्पति, जल, अंतरिक्ष और पृथ्वी को लेकर वैदिक चिंतन में प्रकृति की महिमा का बड़ा बखान किया गया है. बाद में जिस जीवन पद्धति का विकास हुआ उसमें कूप, तडाग, सरोवर, नदी, सागर और तीर्थ आदि धार्मिक और गृहस्थ जीवन में प्रमुख स्थान पाते रहे. वर्ष चक्र की एक यज्ञ के रूप में कल्पना करते हुए ऋग्वेद में वसंत ऋतु को ‘घी’, ग्रीष्म को ‘समिधा’ शरद को ‘हवि’ कहा गया है: यत् पुरूषेण हविषा  देवा यज्ञ मतन्वत .  वसंतो अस्य आसीत् यज्यं ग्रीष्म इध्म: शरद हवि: ..

पृथ्वी पर वनस्पति, पशु-पक्षी और मनुष्य साथ-साथ रहते आए हैं. वे सहजीवी रहे हैं. सह जीवन में आदान-प्रदान होता है और परस्परनिर्भरता को पहचानते हुए प्रकृति की रक्षा भी की जाती है. प्रकृति ‘माता’ की भाँति पूज्य है. वेद में भूमि को माँ और स्वयं को पृथ्वी की संतति कहा गया है: माता भूमि: पुत्रोहम् पृथिव्या: . पृथ्वी के प्रति मनुष्यता का आभार का एक सहज भाव यहाँ के समाज में व्याप्त रहा है जो कई तरह से प्रकट हुआ है. प्रकृति के विभिन्न पक्ष ईश्वर के प्रत्यक्ष तनु (शरीर) कहे गए हैं. पीपल, नीम और वट के वृक्षों की पूजा की बड़ी प्राचीन परम्परा है . प्राण वायु (आक्सीजन) देने वाले वृक्षों के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती. विभिन्न वनस्पतियों के औषधीय गुणों को आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है और ‘वृक्षायुर्वेद’ एक शास्त्र के रूप में विकसित हुआ था जिसमें इनका विशद विवेचन मिलता है.

यहाँ यह भी स्मरणीय है कि नदी, वृक्ष और पशु-पक्षी सब मिल कर हमारी पारिस्थितिकी का निर्माण करते हैं. पारिस्थितिकी के संतुलन को बनाए रखने में इन सबका समान महत्व है. लोक मानस में अभी भी गीतों, कथाओं, जीवन-संस्कारों, लोकाचारों, रीति-रिवाजों, तथा उपासना के यज्ञादिक कृत्यों में विभिन्न पौधों और वृक्षों की जीवन्त उपस्थिति बनी हुई है. आम्र-पल्लव, दूर्वा और तुलसी-दल के बिना कोई पूजा विधि पूरी नहीं होती. और तो और गंगा और यमुना जैसी नदियों को भी शादी-व्याह में जैसे अवसरों पर न्योता देने की प्रथा है. इनमें स्नान कर पुण्य-लाभ कमाने का आकर्षण अभी भी बना हुआ है. कुम्भ मेले की परम्परा इसका ज्वलंत प्रमाण है जिसमें लाखों लोग गंगा में डुबकी लगाने के लिए प्रयाग में एकत्र होते हैं.

प्रकृति के प्रति आकर्षण का एक आधार यह भी है कि नैसर्गिक परिवेश का सौंदर्य आत्मिक तृप्ति देने वाला होता है. समुद्र और नदी में स्नान स्वास्थ्यवर्धक होता है और उससे मन को विश्रांति मिलती है. सागर, निर्झर, वन, झील, पर्वत, वृक्ष और नदी से संसर्ग हमारे आध्यात्मिक जीवन, सृजन और सामुदायिक जीवन को समृद्ध बनाने वाला होता है. उसका स्वाद लेने के लिए आज साधनसम्पन्न सैलानी देश विदेश में दूर-दराज और दुर्गम स्थानों की यात्रा करते नहीं थकते. इतिहास द्वारा भी इस बात की पुष्टि होती है कि नदियाँ पूरे विश्व में मानव सभ्यता और जननी रही हैं. उन्हीं के निकट संस्कृतियों के विकास की गाथाएं लिखी जाती रही हैं.

भारत में प्राकृतिक संसाधनों को संग्रह कर उपभोग किया जाता रहा परंतु बाज़ार केंद्रित अर्थ व्यवस्था के साथ संसाधनों के असीमित उपयोग की लालच बढ़ी. अंग्रेज़ी उपनिवेश के दौरान उनके अपने हितों के लिए जंगलों की कटाई और खनन का दौर शुरू हुआ और प्राकृतिक सम्पदा का घोर शोषण आरम्भ हुआ. निर्वनीकरण और बाँधों का निर्माण आज भी जारी है.  यह दुखद है कि पर्यावरण जैसे गम्भीर प्रश्न के साथ भी प्रतीकात्मक ढंग से बर्ताव किया जाता है. पर्यावरण की शुद्धता और स्वच्छता का सवाल जीवन से जुड़ा है परंतु सत्ता और कारपोरेट दुनिया की मिली भगत के बीच जल, जीवन और जंगल पर बड़ा ख़तरा मंडरा रहा है. विकास की मजबूरी के नाम पर प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में व्यापक पर्यावरण विनाश होता आया है और साथ में विस्थापन की विकट समस्या भी खड़ी हुई है. दिल्ली और मथुरा में यमुना एवं कानपुर तथा काशी में गंगा का प्रदूषण चिंताजनक स्तर पर है. प्रौद्योगिकी और उद्योग घरानों की साँठ गाँठ के बीच पर्यावरण की बलि चढ रही है. प्रगति और विकास के नारे के आगे सब कुछ ध्वस्त होता जा रहा है. ये नारे वस्तुतः मनुष्य की अनियंत्रित धन सम्पदा कमाने की भूख को ही द्योतित करते हैं. इस तरह के अंधे स्वार्थ के आगे विवेक जबाव दे रहा है. आर्थिक सम्पन्नता के लिए वसुंधरा पृथ्वी आज सब तरह से शोषित और लुंठित हो रही है.

मनुष्य को केंद्र में रख कर नियंता के भाव के साथ प्रकृति को उपभोग्य मान लिया गया. इसके चलते खुद को निरपेक्ष उपभोक्ता की हैसियत से उसका अंधाँधुँध दोहन करना मनुष्य का मुख्य कार्य हो गया. प्रकृतिभक्षी दृष्टि के चलते पारिस्थितिक असंतुलन के फलस्वरूप अब आए दिन अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, अकाल और तूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाओं के संकट छाए रहते हैं. प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं और जैव विविधता घट रही है. आधी सदी से कम समय में पक्षियों, स्तनधारियों, मछलियों, उभयचरों और सरीसृपों में औसतन 68 प्रतिशत कमी आई है. जैव विविधता घटने के कई प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम हैं. वह एक संसाधन है जो जीवन की गुणवत्ता के लिए आवश्यक है. एक सदी में भू उपयोग में बड़ा बदलाव आया है. जैव विविधता नष्ट होने से पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त हो जाएगा. जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा और पुनर्स्थापना आवश्यक है. इस दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र द्वारा जी डी पी में प्रकृति के सच्चे मूल्य को भी शामिल करने की बात की जा रही है.

कृषियोग्य भूमि बना कर भारी मात्रा में 50 प्रतिशत वृक्ष ख़त्म हुए हैं. समुद्र के उपयोग में भारी बदलाव से समुद्री पारिस्थितिकी भी बदली है. ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो औद्योगिकीकरण के चलते सबसे काम समय में, लगभग 350 वर्षों में सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुँचा है. उर्वरक और कीटनाशकों के प्रयोग के चलते रसायन भारी मात्रा पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं. भूमि का क्षरण हो रहा है, वन का आवरण काम हो रहा है, नदियों के जल स्तर में गिरावट आ रही है, भू जल स्तर घाट रहा है और ग्लेशियर खिसक रहे हैं. जीवन शैली में आए बदलाव से तरह – तरह की गैसों का उत्सर्जन हो रहा है. ग्रीन हाउस प्रभाव की चर्चाओं के बीच पर्यावरण का ह्रास एक विकट चुनौती बन रही है. प्रकृति और मनुष्य के बीच संघर्ष का परिणाम पर्यावरण संकट के रूप में आ रहा है. हवा, पानी और भोजन जैसे जीवन जीने के लिए अनिवार्य तत्व घोर प्रदूषण की गिरफ़्त में आ रहे हैं. मौसम में बदलाव को ले कर पृथ्वी पर आपात काल लगाने जैसी स्थिति उभर रही है. पृथ्वी पर हाबी हो रहे मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों की पूरी ऋंखला को तनावग्रस्त बना दिया है.

जल की बर्बादी, भू जल स्तर में गिरावट, अस्वच्छ जल के उपयोग से बीमारी आदि को ध्यान में रख कर जल-प्रबंधन को वरीयता देनी होगी. वृक्षारोपण का अभियान, वनों की कटाई रोकना जैविक खाद और बीज के साथ जैविक खेती की ओर ध्यान देना होगा. जीव जगत की पारस्परिकता को स्वीकसर करते हुए दायित्व बोध जगाना होगा और आत्मीय रिश्ता बनाना होगा. प्रकृति को देखने और उसे महत्व देने के नज़रिए को बदलना होगा.

अपनी आत्म केंद्रित दृष्टि के भ्रम में हम यह अक्सर भूल जाते हैं कि सम्पूर्ण जैविक विश्व एक इकाई है और मनुष्य को इससे जुदा नहीं रखा जा सकता. अन्य तत्वों की ही तरह वह भी पर्यावरण की व्यवस्था का ही एक हिस्सा है. इसलिए समग्र प्रकृति के साथ जुड़ते हुए और तालमेल के साथ ही आगे कदम बढ़ाया जा सकता है. चूँकि हमारा जीवन प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर करता है अत: उन मूल्यों को प्रभावी करना होगा जो सम्पूर्ण जीवन को पहचान सकें और सबके विकास का अवसर दे सकें. धरती की सीमा में ही उपभोग और उत्पादन करना ही एकमात्र विकल्प है. असीम उपभोग से सुख की तलाश बेमानी है. आज मनुष्य का पर्यावरण के प्रति उदासीन व्यवहार सार्थक और सुखमय जीवन में बड़ा बाधक हो रहा है. प्रकृति के बाह्य पक्ष हमें आकर्षित करते हैं और जंगल सफ़ारी, पर्वत, नदी, घाटी, झील आदि घूमने जाते हैं परंतु पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से हम सतर्क नहीं रहते.

वर्तमान परिस्थितियों के मद्दे नज़र आज धरती के साथ जुड़ाव हो यह आवश्यक है.  जन साधारण के मन में प्रकृति प्रेम का भाव पैदा करना होगा. जल की बर्बादी, भू जल स्तर में गिरावट, अस्वच्छ जल के उपयोग से बीमारी आदि को ध्यान में रख कर जल-प्रबंधन को वरीयता देनी होगी. वृक्षारोपण का अभियान, वनों की कटाई रोकना जैविक खाद और बीज के साथ जैविक खेती की ओर ध्यान देना होगा. जीव जगत की पारस्परिकता को स्वीकसर करते हुए दायित्व बोध जगाना होगा और आत्मीय रिश्ता बनाना होगा. प्रकृति को देखने और उसे महत्व देने के नज़रिए को बदलना होगा.

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