देव पशवा का मुंह में लोहे वचांदी की छड़ डालना रहता है मेले का मुख्य आकर्षण.
रामा गांव में लगता है 12 गांव का कैलापीर, नरसिंह एवं सियूड़ियादेवता का मेला.
हिमाचल के डोडरा का है सियूड़ियादेवता, रामा सिरांई क्षेत्र का सबसे पुराना गांव है रामा.
- नीरज उत्तराखंडी, पुरोला
रामा सिरांई पट्टी के 12 गांव का सियूड़िया देवता, केलापीर एवं नरसिंह देवताओं के मेले में बुधवार को रामा गांव में क्षेत्र की भारी भीड उमडी,हर वर्ष 22 गते भाद्रपद को 7 सितंबर सियूड़िया देवता के पशवा का मुहं
में लोहे व चांदी की छड सियूडा डालना लोगों के आस्था, आकर्षक का केंद्र है जिस रोचक नजारे देखने को कमल सिरांई व मोरी त्यूणी, पर्वत क्षेत्र व नौंगाव समेत सरबडियाड़ व दूर दराज गांव से सैकडों की भीड उमड़ती है.ज्योतिष
मेले के दिन केलापीर व नरसिंह देव पशवा
की मौजदूगी में सियूड़िया महाराज पश्वा पर अवतरित हो कर लोहे-चांदी की आठ इंच लंबी छड मुंह, गालों के दोनों तरफ डालकर लोगों को मनते पूरी करनें व क्षेत्र की खुशहाली व अच्छी फसल पैदावार का आर्शिवाद देते हैं.
ज्योतिष
मेले में जहां बेस्टी, रामा, गुंदियाटगांव, पोरा, अंदोणी एवं रेवडी आदि गांव-गांव से लोग पारम्परिक रीति-रीवाज ढोल, दमाउ व रणसिघों के साथ मेले एक दिन पहले सियूड़िया देवता मंदिर रामा गांव पहुंते कर रातभर चीड़
के छिलकों के सहारे नरसिंह देवता, केलापीर व सियूड़िया देवता की पूजा अर्चना कर प्रसन्न करते हैं वहीं गांव के घर-घर पारंपरिक पकवान तैयार त्योहार मनाया जाता है, गांव की बेटियां-बहुएं व युवक,महिला,बुर्जुग तांदी गीत पर जमकर थिरकतें हैं.ज्योतिष
मेले के दिन केलापीर व नरसिंह देव पशवा
की मौजदूगी में सियूड़िया महाराज पश्वा पर अवतरित हो कर लोहे-चांदी की आठ इंच लंबी छड मुंह, गालों के दोनों तरफ डालकर लोगों को मनते पूरी करनें व क्षेत्र की खुशहाली व अच्छी फसल पैदावार का आर्शिवाद देते हैं.ज्योतिष
अवतरित देवता की विशेषता यही है
कि अवतरित होकर अपने गाल मे सुवा (बोरी सिलने वाला) सिवड़ा डालते हैं. जिससे न खून निकलता है और न छेद दिखाई देता है यह अपने आप मे आश्चर्य चकित कर देने वाली बात है. आज के वैज्ञानिक युग मे ऐसा होना अपने आप मे एक बडी बात है.
ज्योतिष
देवता के बजीर व स्याणा बृजमोहन चौहान, रामवीर राणा,
मनमोहन, बलवीर आदि ने बताया कि मूलरूप से रामा गांव निवासियों की कई पीढियों पहले हिमाचल के डोडरा क्वांर से आकर रामा गांव आकर बस गये व उसी सयय ईष्ट देवता के रूप केलापीर, नरसिंह,सियूड़िया महाराज को भी साथ लाये थे.ज्योतिष
क्षेत्र के प्रसिद्ध लेखक शिक्षक व छायाकार
संस्कृति के संरक्षण के प्रयासरत चंद्र भूषण बिजल्वाण कहते है कि- कहा जाता है कि रामा गांव पांडवों के समय,रवांई क्षेत्र का मूलरूप से सबसे पूराना गांव है तथा तभी से 22 गते भाद्रपद सितंबर हर वर्ष धान की फसल तैयार होने पर अच्छे उत्पादन के लिए सियूड़िया मेला मनाया जाता है.ज्योतिष
सियूड़िया देवता मोरी विकास खण्ड के फते पर्वत के देवता है. यह देवता जब किसी पर अवतरित होते हैं. तो वे अपनी भाषा मे गुणगान करते हैं. जिसकी लय ताल बहुत ही मधुर होती है. अवतरित देवता की विशेषता यही है कि अवतरित होकर अपने गाल मे सुवा (बोरी सिलने वाला) सिवड़ा डालते हैं. जिससे न खून निकलता है और न छेद दिखाई देता है यह अपने आप मे आश्चर्य चकित कर देने वाली बात है. आज के वैज्ञानिक युग मे ऐसा होना अपने आप मे एक बडी बात है.
मेले हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग : महावीर रवांल्टा
प्रसिद्ध साहित्यकार, लेखक, कवि एवं रंगकर्मी महावीर रवांल्टा लिखते हैं कि मेले हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं. इनके माध्यम से न केवल आपसी मेल-मिलाप का अवसर मिलता है अपितु क्षेत्र का एक बड़ा सांस्कृतिक परिदृश्य हमारे सामने उभरता है. पूरे क्षेत्रवासियों की उपस्थिति में स्थानीय वाद्यों की लय व थाप के साथ पश्वा द्वारा धातु के सुए को अपने गाल के आर-पार करना ऐसे ही दैवीय चमत्कार हैं, जिन्हें देखकर विस्मय से आंखें खुली की खुली रह जाती हैं और यह उपक्रम विज्ञान के सामने किसी चुनौती से कम नहीं लगता.
गडूगाड़, सिगतूर, रामासिराई, कमलसिराईं व दूसरी पट्टियों के लोग इस अवसर पर उपस्थित होते हैं. ‘रामा की जातर’ रवांई क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है. इसके बिना रामासिराईं का सांस्कृतिक परिदृश्य अधूरा है. इस मेले के माध्यम से रवांई क्षेत्र का एक समृद्ध व विशिष्ट सांस्कृतिक स्वरुप सामने होता है और इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण बन जाता है कि सदियों से रवांई क्षेत्र के लोग उत्सवधर्मी रहे हैं. लोक की व्यापकता उसके प्रति सहज समर्पण, सामूहिकता की भावना, स्वस्थ मनोरंजन व गहन सांस्कृतिक दृष्टि के दर्शन हमारे उत्सवधर्मी समाज का सबसे विशिष्ट चेहरा है और पुख्ता पहचान भी. इस मायने में ‘रामा की जातर’ अपने आप में बेहद विशिष्ट और लोक प्रचलित आयोजन है, जिसमें अपनी लोक संस्कृति की बहुरंगी छटा स्वत ही उजागर होती है. ऐसे मेलों का संरक्षण व प्रचार-प्रसार समय की बहुत बड़ी जरुरत है.
सियूड़िया जातर नामकरण की वजह सियूड़ा गालों के आर-पार करने से है. लोहे के सुए को रवांल्टी भाषा में सियूड़ा या स्यूड़ा कहा जाता है और इस जातर में अवतरित पश्वा द्वारा स्यूड़ा आर पार करने के कारण जातर ही सियूड़िया जातर हो गई. वैसे भी मेरे का मुख्य आकर्षण यही उपक्रम है.