प्रकाश उप्रेती
CBSE ने आज 12वीं का रिजल्ट जारी कर दिया है. 22 जुलाई को 10वीं कक्षा का परिणाम भी घोषित किया था. इन दोनों 10वीं और 12वीं के परीक्षा परिणामों का बच्चों के लिए खासा महत्व होता है. इन परिणामों के आधार पर ही वह
भविष्य की राह चुनते हैं. बच्चों पर इन कक्षाओं में अच्छे अंक लाने का दबाव स्कूल से लेकर परिवार तक सबका होता है. हर टीचर और माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे टॉप ही करें. इससे कम किसी को मंजूर नहीं होता है. सोशल मीडिया पर 90% से ऊपर अंक लाने वाले बच्चों की तस्वीर है और उन पर गर्व करते माता-पिता की खुशी है. टेलीविजन के पर्दे से लेकर अखबार के पन्नों तक में 100% अंकों का ही जिक्र होता है. इनमें कहीं भी औसत अंक लाने वाले विद्यार्थी का जिक्र नहीं होता है. न उनकी तस्वीर न उन पर गर्व! आखिर ऐसा क्यों ?ज्योतिष
पिछले कुछ वर्षों से अंकों के प्रतिशत से ही बच्चों की सफलता और विफलता को आंका जा रहा है. हर चीज को प्रतिस्पर्धा की नजर से देखा जा रहा है. इसमें बच्चों की रूचि कहीं भी नहीं है. सब देखा-देखी के दबाव में हो रहा है. उनके अंक ही उनका व्यक्तित्व भी तय कर रहे हैं. यह परिवार के स्तर से लेकर समाज के स्तर तक देखा जा सकता है. इन अंकों के आंकलन की रीत में उनका कहीं जिक्र नहीं है जो
उनसे कुछ प्रतिशत पीछे रह गए हैं और न ही उनका जिक्र है जो मेहनत करने के बावजूद निर्धारित अंक नहीं ला पाए हैं. ऐसे में इस इकहरे विमर्श को ही सफलता मान लिया जा रहा है. अंकों से बच्चों के वर्तमान और भविष्य का अंकन किया जा रहा है. अंकों को ही सफलता मान लेने की इस कवायद में शिक्षक, परिवार, समाज से लेकर ओपिनियन निर्धारित करने वाले लोगों तक की अहम भूमिका है. ये सब मिलकर बच्चों के दिमाग से खेलते हुए उन्हें अंकों की दौड़ में लगा रहे हैं.अंकों के इस पूरे खेल में यह बात समझनी जरुरी है कि अंक कहीं से भी सफलता का पैमाना नहीं हैं. 90 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे ही सफल होंगे ऐसा नहीं होता है. दुनिया में ऐसे बहुत से उदाहरण आपको मिल जाएंगे जो औसत
अंक लाने के बावजूद भी बेहतर जिन्दगी जी रहे हैं. आप उन्हें सफल भी कह सकते हैं. वैसे सफलता के सबके अपने पैमाने होते हैं. हर छोटी से छोटी चीज़ जो आप स्वयं से अर्जित करते हैं, वही आपकी सफलता होती है.
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अब इस दौड़ में जो पिछड़ जाता है वह, शिक्षक, समाज
और परिवार की नज़रों में असफल है. बच्चे भी मान लेते हैं कि 100 प्रतिशत अंक लाने वाली दौड़ में वो 60 या 70 प्रतिशत अंक ला रहे हैं तो पिछड़ गए हैं. यह भाव उनके अंदर भर भी दिया जाता है. इससे उनके नैसर्गिग विकास पर तो प्रभाव पड़ता ही है साथ ही सामाजिक व मानसिक ताने व तनाव का भी सामना करना पड़ता है.पढ़ें— हाईस्कूल की पंच वर्षीय योजना
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इस ताने व तनाव के कारण ही भारत में 100 में से 2 आत्महत्याएँ परीक्षा में फेल होने के कारण होती हैं. एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि 100 आत्महत्याओं में से 8 स्टूडेंट्स के द्वारा की जाती हैं. इसमें से भी 25% परीक्षा में असफल होने
और मानसिक तनाव के कारण होती है. इन बातों के बावजूद भी हम अंकों की रेस में बच्चों को दौड़ाने से बाज नहीं आते हैं और उनकी प्रतिभा को समझे बिना उन्हें जबरन धकेल देते हैं. इसका एक उदाहरण कोचिंग हब के तौर प्रसिद्ध हो चुका कोटा शहर है. वहां से आने वाली ख़बरों से कोई भी अनभिज्ञ नहीं होगा. इन सब बातों के बावजूद हम अंकों को गर्व, प्रतिष्ठा और सफलता की गारंटी मानकर नुमाइश करते हैं. इससे कम प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चों पर क्या मानसिक व सामाजिक असर पड़ता होगा, उसको हम बिल्कुल नजरअंदाज कर देते हैं.आप
अपने बच्चों को मशीन मत समझिए और न ही बनाने की कोशिश कीजिए. बच्चों की रूचि को समझकर उन्हें वह करने दीजिए जिसे वो बेहतर कर सकते हैं. आप उनमें तार्किक क्षमता विकसित कीजिए और उनको अपने पंखों पर उड़ने दीजिए. अंकों के दबाव से उनकी उड़ान को कमजोर मत कीजिए.
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अंकों के इस पूरे खेल में यह बात समझनी जरुरी है कि अंक कहीं से भी सफलता का पैमाना नहीं हैं. 90 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे ही सफल होंगे ऐसा नहीं होता है. दुनिया में ऐसे बहुत से उदाहरण आपको मिल जाएंगे जो औसत
अंक लाने के बावजूद भी बेहतर जिन्दगी जी रहे हैं. आप उन्हें सफल भी कह सकते हैं. वैसे सफलता के सबके अपने पैमाने होते हैं. हर छोटी से छोटी चीज़ जो आप स्वयं से अर्जित करते हैं, वही आपकी सफलता होती है. अंक कहीं से आपकी सफलता को परिभाषित नहीं करते हैं. गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई ने हर्षा भोगले को दिए एक इन्टरव्यू में, जब उनसे यह पूछा गया कि 12वीं में आपको कितने प्रतिशत अंक मिले थे तो उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “अब क्या बताऊं, इतना समझ लीजिए कि मुझे श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में मेरिट के आधार पर ऐडमिशन नहीं मिला था”. उनके इस जवाब से अंकों की रेस और सफलता की दुनिया को समझा जा सकता है.ज्योतिष
यह बात उन माता-पिता को भी समझनी चाहिए जो बच्चों पर लगातार अंकों का दबाव बनाते हैं. उनकी सफलता और विफलता को अंकों से जोड़ कर देखते हैं. यह एक आत्मघाती दौड़ है. इससे सबको बचना चाहिए. आप
अपने बच्चों को मशीन मत समझिए और न ही बनाने की कोशिश कीजिए. बच्चों की रूचि को समझकर उन्हें वह करने दीजिए जिसे वो बेहतर कर सकते हैं. आप उनमें तार्किक क्षमता विकसित कीजिए और उनको अपने पंखों पर उड़ने दीजिए. अंकों के दबाव से उनकी उड़ान को कमजोर मत कीजिए.ज्योतिष
अपने बच्चों पर गर्व कीजिए न की उनके अंकों पर.
गर्व और सफलता के इन आंकड़ों व प्रतिशत के बीच 12वीं तथा 10वीं के उन बच्चों को भी बधाई जो सफलता के खांचों में फिट नहीं बैठ पाए. यह तो सिर्फ शुरुआत है, रास्ता अभी बहुत दूर है. समय- समय पर सफलता के ये खांचे बदलते रहेंगे.(डॉ. प्रकाश उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं हिमांतर पत्रिका के संपादक हैं और
पहाड़ के सवालों को लेकर हमेशा मुखर रहते हैं.)