एक लंबे संघर्ष की कहानी है “माऊंटेन विलेज स्टे-धराली हाईट्स”

  • विनय केडी

समय कि उपलब्धता के अनुसार छोटी—छोटी यात्राएं बनाते हुए जानकारियां एकत्रित करने के काम को जारी रखा। और इन सभी यात्राओं से यह समझ में आ गया था कि आध्यात्मिक पर्यटन के साथ—साथ ग्रामीण पर्यटन की संभावनाओं पर भी काम करना होगा अन्यथा हासिल शून्य ही रहेगा। 

18 अप्रैल वर्ष 2009 में आध्यात्मिक पर्यटन हेतु उत्तराखंड टेंपल्स प्रोजेक्ट की शुरुआत की। पेशे से फ़ोटोग्राफ़र और अपने करीबी मित्र मुकेश के साथ उस दौरान मैने उत्तराखंड के पौड़ी और टिहरी जनपद के कई मंदिरों का भ्रमण किया। हमें दिन भर सुदूर गावों में मंदिरों की जानकारी और फ़ोटोग्राफ़्स एकत्र करने के बाद रात्रि विश्राम हेतु शाम होते किसी बड़े कस्बे में लौटना होता था, जो अपने आप में बड़ा मुश्किल काम होता था। और उस दौरान मैने महसूस किया कि आध्यात्मिक पर्यटन की परिकल्पना बिना ग्रामीण पर्यटन के अधूरी है क्योंकि पहाड़ के गावों में अच्छे रात्रि विश्राम और अच्छे भोजन की उपलब्धता का नितांत आभाव है।

12 दिनों की यात्रा के बाद घर लौट आया, उसके बाद बीच-बीच में समय कि उपलब्धता के अनुसार छोटी—छोटी यात्राएं बनाते हुए कभी पंकज रावत तो कभी परवीन के साथ जानकारियां एकत्रित करने के काम को जारी रखा। और इन सभी यात्राओं से यह समझ में आ गया था कि आध्यात्मिक पर्यटन के साथ—साथ ग्रामीण पर्यटन की संभावनाओं पर भी काम करना होगा अन्यथा हासिल शून्य ही रहेगा। इस दौरान कई सामाजिक समस्याओं पर काम कर रही कुछ संस्थाओं के संपर्क में भी रहा, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और पलायन जैसे मुद्दों पर कई सवाल उठाये जो सरकारों की नजर में केवल और केवल बकैती से अधिक कुछ नहीं थे। लिहाजा यह भी समझ आ गया कि सवाल उठाने वाली यही संस्थायें अपने व्यावसायिक और राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के नाम पर कब सरकारों की गोद में जा बैठें कोई भरोसा नहीं।

अब तक मैं पांच सौ के आसपास ट्रेवल डेस्टिनेशन चिन्हित कर चुका था, अब जरुरत थी उन स्थानों के आसपास होमस्टे की संभावनाएं तलाश करने की। कुछ करीबी लोगों से सरकारों और व्यवस्थाओं पर सवाल उठाने के बजाय एक टीम बनाकर समाधान मे नए मॉडल खड़े करने की बात करते हुए यह प्रोजेक्ट उनके सामने रखा लेकिन उन्होने भी सिरे से नकार कर हतोत्साहित कर दिया। किसी कॉफ़ी शाप में एक दिन अपने सामाजिक/सामुदायिक विकास के अनुभवी मित्र अखिलेश डिमरी के साथ इस प्रोजेक्ट पर चर्चा की।

अखिलेश भाई को मॉडल पसंद आया और मिलकर काम करने की हामी भरी। बात यह भी हुई कि यार जिनसे उम्मीद थी जब वो सब इस मॉडल को नकार चुके है तो हम दोनों मिलकर भी क्या कर लेंगे…? कैसे करेंगे…? ये सब होगा कैसे…? तो ये निकल कर आया कि यार सबने नकार दिया लेकिन हमने तो आज भी नहीं नकारा हम उनके इस नकारने को ही नकारते हैं और अब हम बिना किसी से कोई उम्मीद किए इसे खुद शुरू करेंगे और दोनों अवसादग्रसित हंसी हंसते हुए एक साथ बोल पड़े कि यार बहुत हुई बकैती…। बस यहीं से माऊंटेन विलेज स्टे की बात हुई और टीम का गठन शुरू हुआ जिसका केवल और केवल उद्देश्य था होमस्टे के मॉडल पर काम करते हुए पर्यटन की संभावनाओं की तलाश।

अब जरुरत थी होमस्टे के मॉडल्स को समझने की… जिसके लिये हमने हिमाचल, असाम, मेघालय, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल राज्यों की न जाने कितनी यात्राएं की और कैसे की…? हिमाचल पड़ोसी राज्य होने के कारण मुश्किल नहीं था लेकिन अन्य प्रदेशों के लिए किसी भी ऐसे वीकेण्ड पर जब शुक्र-शनि के अवकाश की संभावनाएं हो, हम देहरादून से आखरी फ़्लाईट से निकल लेते थे, और सुबह होते मेघालय, आसाम, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल पहुंचकर काम शुरु कर देते। दो—तीन दिन लोगों के मॉडल्स/अनुभवों को समझते फिर रविवार रात वापस दिल्ली पहुंचकर एअरपोर्ट पर ही रात गुजारते और सुबह पहली फ़्लाईट से देहरादून पहुंचकर सुबह समय पर अपने आफ़िस में हाजिरी। अखिलेश भाई तो जॉलीग्रांट से ही हरिद्वार ऑफ़िस चले जाते थे और मैं घर होते हुए आफिस।

अब समय था काम शुरू करने का। उत्तरकाशी जनपद के बड़कोट कस्बे से घरों की तलाश शुरू हुई 12 जनवरी 2019 से मित्र विजयपाल रावत के सहयोग से, समुदाय के साथ काम करते हुए आने वाली समस्याओं ने भी सामने आना शुरू किया लेकिन जिद थी सो डटे रहे कई घर देखे आखिर में मित्र ओम बधानी जी ने दिनेश चौहान जी से मिलवाया जिनके रिश्तेदार का हर्षिल धराली में एक मकान सेब के बगीचे के साथ खाली पड़ा था। घर देखकर लगा यही था जिसे हम तलाश कर रहे थे। देवदार के स्लीपरों और मिट्टी पत्थर का बना एक पुराना दोमंजिला मकान जो जीर्ण-शीर्ण होने के कागार पर खड़ा था।

क्योंकि कोशिश थी कि बेस्ट आफ़ द बेस्ट देना है इसलिये कानूनी सलाहकार अग्रज चंद्रशेखर करगेती जी की मदद ली। लीज/रेंट आदि की शर्तें, दोनों पक्षों की सहमति और कानूनी कार्यवाही में करगेती दा का सहयोग मिला न जाने कितनी शामें करगेती दिदा नें हमको दे दी। फीस की बात तो दूर शायद करगेती दिदा ने इस बारे में सोचने का मौका भी न दिया। हम शंका करते कि दिदा ये हो सकेगा दिदा कहते अरे सब हो जाएगा तुम करो मैं हूँ न और ये शब्द हम फकीरों को दुनिया के सबसे अमीरों वाला बल दे जाते। अभी तक के काम तो या तो सहयोग से चल गये या थोड़ा बहुत खर्चे से चल गया लेकिन वो वक्त भी आ गया जब जरुरत थी बड़े खर्चे की मकान को रिनोवेट करने की सारी सहूलियतें जुटाने की। कुछ मित्रों ने सलाह दी कि सरकार की होमस्टे स्कीम से लोन उठा लो। कुछ ने कहा हम मदद करते हैं, लेकिन जिद थी कि सरकार से कोई मदद नहीं लेनी है, लिहाजा खुद की जेबें पलट डालीं और काम शुरू किया।

रिनोवेशन के काम को आगे बढ़ाने के लिये उत्तरकाशी में एक रिसोर्स पर्सन की आवश्यक्ता थी, ऐसे में कमलेश गुर्रानी भाई खुद आगे आये और अभिभावक—सी बागडोर संभाली। कमलेश भाई के साथ आने का मतलब था कड़ी धूप में एक छायादार पेड़ का मिल जाना। उनके आते ही हमारे लिए आगे की मुश्किलें आसान होतीं चली गईं। टीम माऊंटेन विलेज स्टे अपना आकार ले रही थी, जिसको बनाने में सबसे अहम भूमिका कमलेश भाई की रही।

कोशिश थी कि खंडहर होते एक घर को आधुनिक सुख सुविधाओं से सुसज्जित पर्यटक आवास बना दिया जाए, पेंट के कलर से लेकर नीचे बिछने वाली मैट और बिजली के बल्ब से लेकर खाने की चम्मच तक न जाने कितनी चर्चाओं और भाग दौड़ कर तय किये एक समय यह भी आया कि पैसे खत्म हो गए पेट्रोल भराने तक के पैसों के लिए सोचना पड़ा

अब हमारी जिम्मेदारी थी कि शुक्र रात या शनिवार को हर्षिल जाना और कामों का जायजा लेकर रविवार की शाम 6 बजे हर्षिल से चलकर रात 2-3 बजे देहरादून पहुंचना। नवीन भाई ने मजदूरों की व्यवस्था करना, हर्सिल में कन्स्ट्रक्शन के सामान के समय पर पहुंचने का बंदोबस्त, लाईट की फ़िटिंग के लिये टैक्नीशियन की व्यवस्था, मनोज भाई ने पानी की फ़िटिंग की व्यवस्था देखी। संदीप-मन्दीप ने पेंट और कलरिंग की। और खुशी की बात यह है कि सबने अपनी अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं। यहां टीम माऊंटेन विलेज स्टे अपना आकार ले चुकी थी।

भवन तैयार होने के बाद जरुरत थी साज-ओ-सामान जोड़ने की। तो फ़िर एक दिन अचानक अलोक खुद आगे आया और न जाने कितने सुझावों के साथ इस सबसे नौजवान साथी नें हमारी राहों को आसान कर दिया। सामान खरीदने से लेकर कहां अच्छा मिलेगा, कैसे सस्ता मिलेगा कैसे मिलेगा…? कैसे जाएगा, क्यों जाएगा न जाने कितना कि वो वक्त शुरू हो गया। फ़िर हर बात के लिए आलोक को पूछना जरूरी हो गया था। इतना भरा पड़ा है उसके पास कि दोनों हाथों से भी लुटाए तो भी समेटने वाले के लिए जगह कम पड़ जाए, और ये सब साथी बिना किसी स्वार्थ बिना किसी नाम के खुद से आगे आते रहे।

किसी भी प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिये पैसा एक बहुत जरूरी फ़ैक्टर है। व्यवस्थाओं के लिए खर्चों के लिए पता नहीं क्या क्या पापड़ बेले लेकिन किसी के आगे हाथ नही फैलाया। कोशिश थी कि खंडहर होते एक घर को आधुनिक सुख सुविधाओं से सुसज्जित पर्यटक आवास बना दिया जाए, पेंट के कलर से लेकर नीचे बिछने वाली मैट और बिजली के बल्ब से लेकर खाने की चम्मच तक न जाने कितनी चर्चाओं और भाग दौड़ कर तय किये एक समय यह भी आया कि पैसे खत्म हो गए पेट्रोल भराने तक के पैसों के लिए सोचना पड़ा लेकिन ऊपर वाले ने रास्ते खोलने में भी कोई कसर न छोड़ी। गाड़ी से लेकर गहने तक गिरवी रखने तक की तमाम जद्दोजहद के बीच बस दिल से एक ही आवाज आती थी “भाई अब पीछे मुड़ कर नहीं देखना है बस….”। और ये शब्द किसी कमी और परेशानी को जाने कैसे खत्म कर देते।

अखिलेश भाई की शर्त थी कि हम कभी इस काम के दौरान खुद का सोशल मीडिया पर प्रचार नहीं करेंगे उनका मानना था कि फेसबुक पर समाजसेवा का मतलब है कि आप वास्तव में कुछ नहीं कर रहे सिर्फ अपने स्वप्रचार के और इसे आत्ममुग्धता कहते हैं जो गदहे को हो सकती है इंसान को नहीं होनी चाहए। समाज के लिए हमें अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन चुपचाप कर लेना चाहिए न कि फजूल हल्ला मचा के।

मुझे अच्छी तरह याद है जब हम दोनों एक रविवार की रात 33 हजार फ़िट की उंचाईयों पर उड़ रहे होते और अगले सप्ताह हर्षिल देहरादून की सर्पीली सड़कों पर रात के एक-दो बजे घुप्प अंधेरे और जीरो विजिबिलिटी के फ़ॉग में सांस रोककर गाड़ी ड्राईव कर रहे होते। 240 किमी का यह सफ़र कभी हंसते तो कभी डरते कट ही जाता। और बहुत कुछ खोया है हमने इस दौरान, सबसे ज्यादा कीमती चीज जो खोई वो थी परिवार, बीवी और बच्चों के साथ बिताया जाने वाला वक्त। और हमारे इस टाईम बेटाईम के आने जाने के बीच घर वालों का सुख चैन। लेकिन खुशकिस्मत हैं कि परिवार ने एक बार भी बिना किसी सवाल, नुक्ताचीनी के हमारे जुनून में हमारा साथ दिया।

इस पूरी प्रक्रिया में अपना-अपना प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष योगदान देने वालों की भी लम्बी लिस्ट है, भुला माधवेंद्र रावत, भाई अजय पुरी, तिलक सोनी भाई, दिनेश चौहान जी, खुशाल भाई… सबने कहीं न कहीं अपना योगदान देकर इस मुश्किल भरे रास्ते को आसान किया है। और होते करते 25 दिसंबर 2019 की वह सुबह भी आ गई जिसका हमें बेसब्री से इंतजार था और “माऊंटेन विलेज स्टे – धराली हाईट्स” अपने मूर्त रूप में आया और इसके प्रांगण में हवनकुण्ड में पवित्र अग्नि प्रज्वलित हुई और मां गंगा की धरती पर उनके आशीर्वाद से हम अपना सपना साकार कर सके। आज परिणाम आपके सामने हैं….. इस लंबी जद्दोजहद के बाद आज हमें खुशी है कि हम पहली सीढ़ी के पहले कदम पर खड़े हैं लेकिन अभी सफ़र बहुत लंबा है, जो बिना आप जैसे साथियों की शुभेच्छाओं के सम्भव नहींं। धन्यवाद Shailendra भाई हमारे प्रयास को जनता तक पहुंचाने के लिए।

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