राम नवमी पर विशेष
प्रो. गिरीश्वर मिश्र
सनातनी यानी सतत वर्त्तमान की अखंड अनुभूति के लिए तत्पर मानस वाला भारतवर्ष का समाज देश-काल में स्थापित और सद्यः अनुभव में ग्राह्य सगुण प्रत्यक्ष को परोक्ष वाले व्यापक और सर्व-समावेशी आध्यात्म से जुड़ने का माध्यम
बनाता है. वैदिक चिंतन से ही व्यक्त और अव्यक्त के बीच का रिश्ता स्वीकार किया गया है और देवता और मनुष्य परस्पर भावित करते हुए श्रेय अर्थात कल्याण की प्राप्ति करते हैं (परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ – गीता). इस तरह यहाँ का आम आदमी लोक और लोकोत्तर (भौतिक और पारलौकिक) दोनों को निकट देख पाता है और उनके बीच की आवाजाही उसे अतार्किक नहीं लगती. सृष्टि चक्र और जीवन में भी यह क्रम बना हुआ है यद्यपि सामान्यत: उधर हमारा ध्यान नहीं जाता.ज्योतिष
उदाहरण के लिए सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न और जीवित हैं, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है. वर्षा यज्ञ से उत्पन्न होती है. यज्ञ कर्मों से होता है. एक जीवंत अनुभव के रूप में भजन, आराधना और उपासना में देवी-देवता भी शामिल होते हैं.
लोक गीतों और लोक उत्सवों में यह भाव आज भी मिलता है. इस अर्थ में भगवान श्रीराम निरे ऐतिहासिक न हो कर नित्यव्याप्त सत्ता हैं. वे ऐतिहासिक अतीत नहीं वरन भारतीय संस्कृति के वर्त्तमान हैं, एक सतत विद्यमान कभी न बीतने वाले वर्त्तमान. लोक मन उनके साथ अभी भी संवादरत है और उसकी भावनाओं के जीवन में श्रीराम जीवन्त हैं. वाचिक परम्परा में राम-कथा की अभिव्यक्ति अभी भी प्रभावी बनी हुई है और जन्म, उपनयन, विवाह सभी मांगलिक अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीतों में राम का स्मरण अनिवार्य है. वैसे भी दुःख, आश्चर्य, आह्लाद सभी भावनाओं की हर छटा को व्यक्त करने में राम का नाम जबान पर आ ही जाता है. भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयुक्त नामों में भी राम का प्रचुर उपयोग मिलता है. श्रीराम का नाम ऊर्जा और विश्रांति देने वाला मंत्र है और बहुतों का अनुभव है कि राममय होना कल्याणप्रद है.‘राम’ का शाब्दिक अर्थ है हर्षदायक, सुन्दर, मनोहर और सुहावना. भारतीय परम्परा में तीन राम प्रसिद्ध हैं : जमदग्नि पुत्र परशुराम, वसुदेव पुत्र बलराम और दशरथ-नंदन श्रीराम. यह बात धरती पर धर्म की हानि होने पर ईश्वर के
अवतार होते हैं ताकि नकारात्मक तत्वों का शमन हो सके.
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महर्षि वाल्मीकि द्वारा, जो स्वयं राम-कथा के प्रत्यक्षदर्शी और प्रतिभागी थे, ‘वाल्मीकि रामायण’ में राम की कथा का संभवत: पहला आख्यान प्रस्तुत होता है पर आज भारत और विदेश में राम-कथा के अनेकानेक भाषाओं में कई-कई संस्करण उपलब्ध हैं, अनेक रामायण हैं और उन सबमें गोस्वामी तुलसीदास का लोक भाषा अवधी में रचित ‘रामचरितमानस’ कई दृष्टियों से अप्रतिम है. पिछले पांच
सौ वर्षों से यह सरस संगीतमय रचना भक्त जनों और साहित्य प्रेमियों के ह्रदय का हर बनी हुई है. तुलसीदास जी के शब्दों में राम से ही सभी रिश्ते-नाते बनते हैं – नाते नेह राम के मनियत, क्योंकि राम बड़े भरोसे के हैं. उनसे जुड़ कर सारी संकीर्णताएं दूर होती है और दूरियाँ मिट जाती हैं. इस कथा धारा में आज भी भक्त, भगवान और आम जनों का लोक सभी परस्पर जुड़ जाते हैं. राम लौकिक राजा से अधिक आध्यात्मिक राजा हैं और राम-राज्य एक उदात्त प्रेरक कल्पना है जो समाज के लिए दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्त भरे पूरे गुणवत्तापूर्ण जीवन का मार्ग दिखाती है. यह याद रहना चाहिए कि रामचरितमानस एक लीला काव्य है जो तरह – तरह के प्रसंगों से मनुष्य को उस राम-भाव से भावित बनाता है जो एक ओर सहज रूप से सर्वजनसुलभ है तो दूसरी ओर ऐश्वर्य की पराकाष्ठा है. इन सबके बीच जीवन में अतिक्रमण करने वाली बड़ी बड़ी मर्यादाओं की प्रतिष्ठा के लिए उकसाता है. राम–कथा के सभी पात्र अपने से अधिक किसी बृहत्तर मूल्य के लिए समर्पित हैं.ज्योतिष
‘राम’ का शाब्दिक अर्थ है हर्षदायक, सुन्दर, मनोहर और सुहावना. भारतीय परम्परा में तीन राम प्रसिद्ध हैं : जमदग्नि पुत्र परशुराम, वसुदेव पुत्र बलराम और दशरथ-नंदन श्रीराम. यह बात धरती पर धर्म की हानि होने पर ईश्वर के
अवतार होते हैं ताकि नकारात्मक तत्वों का शमन हो सके . त्रेता युग में राक्षस रावण के अत्याचारो से पीड़ित साधु संतो का जीना दूभर हो रहा था . अत्याचारी रावण बड़ा प्रतापी था और नव ग्रहों और काल तक को अपना बंदी बना लिया था. कोई भी देव या मानव उसका संहार नहीं कर पा रहा था. तब पालनकर्त्ता भगवान विष्णु ने श्रीराम के रूप में अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र के रूप में जन्म लिया.तुलसीदास जी के शब्दों में कहें तो एक अनीह अरूप अनामा, अज सच्चिदानंद पर धामा; ब्यापक बिस्वरूप भगवाना, तेहिं धरि देह चरित कृत नाना . श्रीराम विष्णु के ही वे रूप हैं और अवधनरेश राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के बाद सूर्य के तेज से कौशल्या माता के गर्भ से चैत महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अयोध्या में उनका जन्म हुआ था.
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श्रीराम उसी परम्परा में विष्णु के सातवें अवतार के रूप में प्रसिद्ध हैं. जयदेव ने ‘गीतगोविंद’ में इस अवतार का मनोरम उल्लेख कुछ इस तरह किया है : वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं, दशमुखमौलिवलिम् रमणीयं; केशव धृत रघुपतिरूप जय जय देव हरे. दुष्टों का संहार और भक्तों की रक्षा के लिए संसार में मनुष्य रूप ले कर श्रीराम का यह अवतरण
कई तरह से विलक्षण है. तुलसीदास जी के शब्दों में कहें तो एक अनीह अरूप अनामा, अज सच्चिदानंद पर धामा; ब्यापक बिस्वरूप भगवाना, तेहिं धरि देह चरित कृत नाना . श्रीराम विष्णु के ही वे रूप हैं और अवधनरेश राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के बाद सूर्य के तेज से कौशल्या माता के गर्भ से चैत महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अयोध्या में उनका जन्म हुआ था. भगवान अद्भुत रूप में प्रकट हुए : लोचन अभिरामा तनु घन श्यामा निज आयुध भुज चारी, भूषण बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी. यह रूप देख माता कौशल्या स्तुति करने लगीं पर जब उनको यह भान हुआ कि ‘अनंतश्रीविभूषित श्रीराम मेरे गर्भ में रहे’ तो चकित-विचलित हुईं. तब श्रीराम मुसकाए और पूर्व जन्म की कथा सुनाई कि उन्हें पुत्र वात्सल्य का सुख देने के लिए यह अवसर बना है. तब माता कौसल्या ने कहा कि यह विराट रूप छोड़ कर शिशु रूप धारण कर शिशु लीला करें: कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा .ज्योतिष
मानव रूप में बालक, युवा, प्रौढ़, राजा, योद्धा, वनचारी, पुत्र, मित्र, पति, भाई आदि के रूप में राम का चरित आबालवृद्ध जन-जन तक पहुंची हुई है और उसकी गूँज अनेक काव्यों, लोक रचनाओं और अब मीडिया के माध्यम से
चारो ओर व्याप्त है . राम की अनेक छवियाँ है और वे हर भूमिका की मर्यादा को निभाने की कसौटी के रूप में लोक-स्मृति में बस गए हैं. सबसे प्रखर और लोकप्रिय छवि नील कमल जैसी श्याम आभा और कोमल अंग वाले, पीताम्बरधारी, विशाल नेत्रों वाले धनुर्धारी राम की है जिनका मुखारविंद दुःख और सुख में अविचल रहता है. गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में राम जगदीश्वर हैं पर शांत, सनातन, अप्रमेय(प्रमाणों से परे), निष्पाप, ज्ञानगम्य, योगीश्वर, अजेय, माया से परे, निर्विकार, मोक्षरूप, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, परम शान्ति देने वाले हैं.श्रीराम यदि साथ हैं तो हम स्वाधीन हैं. श्रीराम की कथा से प्रकट होता है कि उनका स्नेह समस्त जीव मात्र तक विस्तृत है. राम की भक्ति मोह और नानात्व वाली भेद बुद्धि से पैदा होने वाले बंधन से मुक्त करती है और सारे विकारों को छार कर देती है और भक्त कवी तुलसीदास जी कह पड़ते हैं राम-चरण-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै.
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वे ब्रह्मा, शम्भु और शेषनाग द्वारा निरंतर सेवित हैं और वेदान्त द्वारा जानने योग्य हैं. वे सर्वव्यापी, देवताओं में सबसे बड़े, समस्त पापों को हराने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ और राजाओं के शिरोमणि हैं. माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले विष्णु (मायामनुष्यं हरिं) हैं. इस तरह परब्रह्म ही नर रूप में देह धरे हैं. सगुण और निर्गुण का भेद नहीं है. तुलसीदास जी कहते है : अज
अद्वैत अनाम, अलख रूपगुन रहित जो, मायापति सोई राम दास हेतु नर तन धरेउ. उन तक पहुँचाने के ज्ञान और भक्ति के मार्ग बने हैं पर वस्तुत: उनमें कोई अंतर नहीं है और दोनों से ही सांसारिक कष्ट दूर होते हैं : ज्ञानहिं भगतिहि नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव सम्भव खेदा .ज्योतिष
मानव शरीर धारण कर प्रभु श्रीराम मानव स्वभाव की सभी गुत्थियों के बीच रमते हुए हर तरह की आपदा को सहते हैं और अविचल भाव से सुख दुःख दोनों के प्रति वीतराग रहते हैं. श्रीराम जन्मोत्सव श्रीराम के भाव या विचार-प्रवाह से जुड़ना है. उनकी प्रतिष्ठा अपने में धारण करना तभी होगा जब हम सहजता, सीधापन अपनाते हुए सहज जीवन की ओर अग्रसर हो सकें. यह भी उल्लेखनीय है कि बोलचाल
की सहज जन-भाषा की रचना (रामचरितमानस) साहित्य का सिरमौर हो गई और घर-घर में हर व्यक्ति की निजी संपदा बन गई. यह सब यही दर्शाता है कि छोटा हो कर भी विशाल भाव अपनाते हुए राम का हुआ जा सकता है. श्रीराम यदि साथ हैं तो हम स्वाधीन हैं. श्रीराम की कथा से प्रकट होता है कि उनका स्नेह समस्त जीव मात्र तक विस्तृत है. राम की भक्ति मोह और नानात्व वाली भेद बुद्धि से पैदा होने वाले बंधन से मुक्त करती है और सारे विकारों को छार कर देती है और भक्त कवी तुलसीदास जी कह पड़ते हैं राम-चरण-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै .ज्योतिष
उनके स्पर्श से उपजी आत्मीयता संक्रामक है. तेजस्विता, शील, धर्म का विग्रह, आदर्श प्रजा पालन, एकनिष्ठ पति, मानव संबंधों का निर्वाह, कृतज्ञता, सत्यसंध होना, करुणा, लोक कल्याण, मृदुता और कठोरता, धैर्य,
क्षमा जैसे गुणों के साथ श्रीराम एक देवोत्तर मानवीय चरित्र उपस्थित करते हैं. प्रजावत्सल, सुखधाम और आनंदसिन्धु श्रीराम का विशाल व्यक्तित्व है और उनका मनहोर रूप आश्वस्ति देता है. उनका नाम वह दीपक है जो हर क्षण जब चाहे अन्दर बाहर प्रकाश से भर देता है : राम नाम मणिदीप धरु जीह देहरी द्वार, तुलसी भीतर बाहरेंहु जब चाहेसि उजियार .(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)