निर्दलीय उम्मीदवार का जीतना कहीं न कहीं उत्तराखंड की राजनीति में आ रहे बदलावों की ओर संकेत करता है
प्रकाश उप्रेती
लोकतंत्र में चुनाव ही वह कसौटी है जिसके आधार पर किसी पार्टी और प्रतिनिधि का मूल्यांकन होता है. जनता अपने वोट के जरिए यह मूल्यांकन करती है. 5 राज्यों में हुए चुनावों का नतीजा आया तो उसमें 4 राज्यों में
बीजेपी गठबंधन और पंजाब में जनता ने आप को बहुमत दिया. अब सवाल इन चुनावों के ‘पाठ’ का है. इस पाठ के लिए अगर उत्तराखंड को लिया जाए तो हम देखते हैं कि इस बार के नतीजे भी कमोबेश पिछले चुनावों की तर्ज पर ही रहे हैं. परंतु इस बार के नतीजे उत्तराखंड की राजनीति में आ रहे बदलावों की तरफ भी संकेत करते हैं. उत्तराखंड का वोटर अब पार्टी लाइन से हटकर भी वोट कर रहा है.ज्योतिष
उत्तराखंड बनने से लेकर आज तक के चुनावों को देखा जाए तो यहाँ मुकाबला हमेशा बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही रहा है. किसी तीसरी शक्ति या क्षेत्रीय पार्टी के लिए कभी कोई गुंजाइश उत्तराखंड की
राजनीति में नहीं रही है. इस बार के नतीजों ने इस बात को और पुष्ट कर दिया है. जबकि इस बार दिल्ली और अब पंजाब जीतने वाली ‘आम आदमी पार्टी’ भी चुनाव मैदान में थी वहीं उत्तराखंड की क्षेत्रीय पार्टी ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ भी कई सीटों पर चुनाव लड़ रहा था. इसके बावजूद जो नतीजे आए हैं उनसे एक बात तो स्पष्ट है कि उत्तराखंड की जनता किसी तीसरे विकल्प की तरफ फिलहाल सोच तो नहीं रही है लेकिन कुछ संकेत जरूर दे रही है.ज्योतिष
21 वर्षों में 11 मुख्यमंत्री देने वाले उत्तराखंड की राजनीति में यह चुनाव पूर्व की परिपाटी को दोहराता हुआ भी कई मायनों में अलग है. इस बार कई मिथक टूटे, निपटे और कई अब भी बरकरार हैं. उत्तराखंड की राजनीति में कोई भी सिटिंग
मुख्यमंत्री वापस विधानसभा नहीं पहुँचा है. इस बार के चुनाव में पुष्कर सिंह धामी (Pushkar Singh Dhami) से उम्मीद की जा रही थी कि वह संभवतः विधानसभा तो पहुँच ही जाएंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वहीं पाँच साल सत्ता में रहने के बाद वापस बीजेपी का सत्ता में आना पुराने मिथकों का टूटना ही है.ज्योतिष
इन नतीजों को बीजेपी की जीत से ज्यादा कांग्रेस की हार से समझना चाहिए. उत्तराखंड में कांग्रेस हरीश रावत के चेहरे के साथ चुनाव मैदान में थी. हरीश रावत पिछला बार दोनों सीट से चुनाव हार चुके थे. चुनाव हारने के बाद चार साल तक
वह उत्तराखंड की राजनीति से ज्यादा असम और पंजाब के केंद्र में रहे. इस बीच उत्तराखंड में कांग्रेस के भीतर गुटबाजी उसी स्तर तक पहुँच गई थी जिसमें कांग्रेस को हराने के लिए कांग्रेस ही काफी थी. इसकी एक बानगी रणजीत सिंह रावत और हरीश रावत के बीच टिकट बंटवारे से लेकर नतीजों तक में देख सकते हैं. एक- दूसरे को निपटाने के चक्कर में जनता ने दोनों को निपटा दिया.ज्योतिष
कांग्रेस के भीतर चल रही इस उठापटक ने इस चुनाव में बीजेपी की जीत के लिए रास्ता तैयार किया. यह चुनाव बीजेपी के लिए अपने फैसलों और पाँच वर्ष के कामकाज पर जनता की सहमति की दृष्टि से महत्वपूर्ण था तो वहीं कांग्रेस के
कैप्टन हरीश रावत के लिए यह चुनाव राजनीतिक कैरियर के लिहाज से करो या मरो का था. हरीश रावत की इस हार के साथ ही उनका राजनीतिक कैरियर भी लगभग समाप्त हो गया है.कांग्रेस की इस हार से उत्तराखंड की राजनीति में नए विकल्प मजबूत होंगे.ज्योतिष
इसलिए यह चुनाव पूर्व के मिथकों को दोहराते हुए भी कई मायनों में उन्हें तोड़ता है. इसको आप यमुनोत्री और खानपुर विधानसभा में जीते निर्दलीय प्रत्याशियों से भी समझ सकते हैं. उत्तराखंड की राजनीति में निर्दलीय उम्मीदवारों का
ऐसा प्रदर्शन अभूतपूर्व है. खासकर तब जबकि पहाड़ का वोटर बीजेपी प्रत्याशी के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में पहाड़ के खाँटी नेता हरीश रावत के अलावा किसी को देखता ही नहीं है. ऐसे में यमुनोत्री निर्दलीय उम्मीदवार का जीतना कहीं न कहीं उत्तराखंड की राजनीति में आ रहे बदलावों की ओर संकेत करता है.ज्योतिष
यह परिणाम बीजेपी की जीत के साथ
उत्तराखंड की राजनीति में हो रहे बदलावों को दर्शाती है.(डॉ. प्रकाश उप्रेती दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर एवं हिमांतर पत्रिका के संपादक हैं और
पहाड़ के सवालों को लेकर हमेशा मुखर रहते हैं.)