- डॉ. मोहन चंद तिवारी
कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा जिले में द्वाराहाट से आठ कि.मी.की दूरी पर स्थित विभांडेश्वर महादेव उत्तराखंड का प्रसिद्ध तीर्थधाम है. स्कंदपुराण के मानसखंड में भी इस शैव तीर्थ के विशेष
माहात्म्य का वर्णन मिलता है.मान्यता है कि भगवान शिव के विश्राम के दौरान यहां शिव का दायां हाथ पड़ा था. इस तीर्थ क्षेत्र की विशेष महिमा यह है कि मंदिर में विद्यमान त्रिजुगी धूनी त्रेतायुग से लगातार प्रज्ज्वलित रही है. पौराणिक मान्यता के अनुसार सुरभि, नंदिनी और गुप्त सरस्वती की त्रिवेणी के संगम पर स्थित इस मंदिर को उत्तराखंड की काशीधाम की मान्यता प्राप्त है.ज्योतिष
ऐतिहासिक दृष्टि से विभाण्डेश्वर महादेव मंदिर शक सम्वत 376 (ईसवी सन 301) में स्थापित हुआ था. मंदिर का वर्तमान स्वरूप 11वीं सदी में कत्यूरी शासकों द्वारा निर्मित किया गया.चंद
राजाओं के शासन काल में भी मंदिर में नियमित पूजा-अर्चना और धार्मिक अनुष्ठान होते रहे हैं. चंद राजा उद्योत चंद ने मंदिर को गूंठ प्रदान की. तदन्तर स्वामी लक्ष्मी नारायण महराज द्वारा यहां इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया व अनेक मूर्तियां स्थापित की गईं. एक ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार इस तीर्थ स्थल पर चंद राजाओं के सेनापति कल्याण चंद की पत्नी कलावती देवी को कुमाऊं की प्रथम और अंतिम सती होने का गौरव भी प्राप्त है.ज्योतिष
चैत्र मास के अंतिम गते की रात्रि को यहां बिखोती मेला लगता है. हिमालय से पहुंचे स्वामी लक्ष्मी नारायण जी ने यहां 1945 में यजुर्वेद,1946 में ऋग्वेद, 1947 में सामवेद तथा 1952 में अथर्ववेद
के यज्ञ संपन्न करवाए. विभांडेश्वर मंदिर में पूरे वर्ष श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है. लेकिन श्रावण मास में यहां पूजा करने का विशेष माहात्म्य बताया गया है. इसलिए श्रावण मास के आने पर विभांडेश्वर में भक्तों की भारी भीड़ रहती है. भक्त जन कपिला गाय के रूप में आराध्य विशाल शिलाखण्ड के पास शाही स्नान भी करते हैं.ज्योतिष
आधुनिक संस्कृत साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान साहित्यकार और साहित्य अकादमी से सम्मानित रचनाकार डा. हरिनारायण दीक्षित जी द्वारा रचित ‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’ नामक आधुनिक
संस्कृत महाकाव्य ‘में जितने मनोयोग और भक्तिभाव से विभांडेश्वर महादेव जी का स्तुतिगान किया गया है वह अद्वितीय होने के साथ साथ इस कुमाऊं प्रदेश के शिवधाम को विशेष गौरवान्वित भी करता है.ज्योतिष
‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’ महाकाव्य में डा. दीक्षित जी ने राजा हालराय की पुत्र प्राप्ति के प्रसंग को लेकर श्रीविभांडेश्वर महादेव के माहात्म्य का अनेक सर्गों में विस्तार से वर्णन किया है.
इस महाकाव्य के सर्ग चार और पांच इस दृष्टि से भी विशेष महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इन सर्गों में लेखक ने अपनी मौलिक काव्य प्रतिभा का परिचय देते हुए श्रीविभाण्डेश्वर धाम के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व को विशेष रूप से उजागर किया है, जिसके सार संक्षेप के रूप में इस पोस्ट के माध्यम से निम्नलिखित पांच श्लोक प्रस्तुत किए जा रहे हैं –ज्योतिष
1.लभ्यं न तीर्थं किमपीह तत्समं,
लभ्यो न देवोsपि च कोsपि तत्समः.
मखोsपि कश्चित्फलदो न तत्समो
नूनं तदीयानुपमास्त्युदारता..
-‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’, 4.34
ज्योतिष
अर्थात् इस संसार में विभांडेश्वर तीर्थ के
समान कोई दूसरा तीर्थ नहीं,श्रीविभांडेश्वर महादेव के समान दूसरा कोई देव नहीं,उनके समान कोई यज्ञ भी फलदायी नहीं. श्रीविभांडेश्वर महादेव की उदारता अनुपम है.2.चत्वारि धामान्यपि तज्जगतपतेस्-
तस्य प्रभावे तुलनां न बिभ्रति.
न द्वादशज्योतिरलंकृतान्यपि
स्थलानि साम्यं दधतेsमुना फले..”
-‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’,4.35
ज्योतिष
अर्थात् तीनों लोकों में व्याप्त
श्रीविभाण्डेश्वर महादेव तीर्थ की महिमा इतनी अपार है कि जगदीश्वर के चारों धाम और द्वादश ज्योतिर्लिंग भी इस तीर्थक्षेत्र की बराबरी नहीं कर सकते हैं.3.”यदश्वमेधो विहितः परिश्रमैर्-
यद् वाजपेयश्च फलं प्रयच्छति.
तद् दर्शनादेव तु तस्य लभ्यते
कृतेsर्चने यच्च तदस्ति तत्परम्..”
-‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’,4.36
ज्योतिष
अर्थात् कठोर परिश्रम से किया गया
अश्वमेध यज्ञ और वाजपेय यज्ञ का जो फल मिलता है, वह फल तो श्रीविभांडेश्वर महादेव के दर्शन मात्र से मिल जाता है. किंतु उनकी अर्चना करने पर जो फल मिलता है,वह फल उससे भी कई गुना बढ़ कर होता है.ज्योतिष
4.काश्यां वसन् स्वीयमशेषजीवनं
भवं भवानीसहितं च पूजयन्.
यत्पुण्यजातं मनुजोsत्र विन्दते
तत्केवलं त्वस्य ददाति दर्शनम्..”
-‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’,4.37
ज्योतिष
अर्थात् जीवन भर काशी में
लगातार वास करते हुए और वहां जगन्माता पार्वती सहित भगवान् विश्वनाथ की पूजा करते हुए मनुष्य को जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य तो यहां श्रीविभांडेश्वर का केवल दर्शन मात्र से मिल जाता है.5.यत्पापशुद्धिर्न च जायते क्वचित्
तद्वै विभांडेश्वरधाम्नि शुध्यति.
यत्पुण्यलाभश्च न जायते क्वचित्
तद्वै विभांडेश्वरधाम्नि लभ्यते..”
-‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’,4.38
ज्योतिष
अर्थात् जिस पाप से कहीं भी छुटकारा नहीं मिलता,
वह पाप भी श्रीविभांडेश्वर में धुल जाता है,और जो पुण्य कहीं भी नहीं मिलता है,वह पुण्य भी श्रीविभाण्डेश्वर धाम में निश्चय ही प्राप्त हो जाता है-डा. हरिनारायण दीक्षित जी ने इस महाकाव्य के
सांस्कृतिक महत्त्व को बढाने के लिए पुण्यभूमि भारतवर्ष, देवभूमि उत्तराखंड और ग्वेलज्यू की जन्मभूमि कूर्माञ्चल की विशेष रूप से वंदना करते हुए कहा है-ज्योतिष
“जयति जयति भूमौ भारतंह्यस्मदीयम्,
जयति जयति तस्मिन्नुत्तराखंडमेतत्.
जयति जयति तस्मिंश्चारुकूर्माञ्चलोऽयं,
जयति जयति जनानां ग्वल्लदेवश्चयस्मिन्॥
-‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’,1.56
ज्योतिष
दरअसल, स्कन्दपुराण के ‘मानसखंड’ में इस पवित्र शैव धाम की जो महिमा वर्णित है,उसी को आधार बनाकर डा.दीक्षित ने अपने इस महाकाव्य में कत्युरी नरेश राजा हालराय की कठोर
तपस्याओं का वर्णन किया है, जिससे प्रसन्न हो कर श्रीविभाण्डेश्वर महादेव राजा हालराय को स्वयं स्वप्न में आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि “हे राजन तुम्हारी सातों ही रानियां माता बनने के योग्य नहीं हैं,इसलिए तुम्हें आठवां विवाह करना होगा.उससे तुम्हें निश्चय से पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी” –“सप्तापि भार्यास्तव किंतु भूपते!
तन्मातृताया न हि सन्ति भाजनम्.
अतो विवाहं रचयाष्टमं निजं
तस्यां ध्रुवं ते तनयो जनिष्यते..”
-‘श्रीग्वल्लदेवचरितम्’,5.84
ज्योतिष
आधुनिक संस्कृत साहित्य के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान साहित्यकार और डा.हरिनारायण दीक्षित जी आज हमारे बीच नहीं रहे,किन्तु कवियश की कीर्तिस्वरूप वे आज भी जीवित हैं और एक महान साहित्यकार के रूप में न्यायदेवता ग्वेलज्यू के देवचरित्र के माध्यम से वे हमारे देश के सांस्कृतिक मूल्यों और परम्पराओं के साथ आज भी
संवाद कर रहे हैं.गौरतलब है कि कुमाऊं विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर और विभागाध्यक्ष तथा अनेक संस्कृत काव्यों, महाकाव्यों के लेखक रह चुके डा. हरि नारायण दीक्षित जी ने उत्तराखंड की देवभूमि को अपने ग्वेल देवता के कृतित्व के माध्यम से एक महिमाशाली भूखंड की राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ने का जो महान कार्य किया है, उसके लिए हम समस्त उत्तराखंडवासी उनके सदैव आभारी ही रहेंगे.ज्योतिष
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)