डॉ. मोहन चंद तिवारी
इस साल उत्तराखंड में
कहीं 7 जुलाई से तो कहीं 8 जुलाई से हरेला बोया जा चुका है और 16 जुलाई को संक्रांति के दिन इसे काटा जाएगा. हरेला वैदिक कालीन कृषि सभ्यता का परंपरागत लोकपर्व है. उत्तम खेती, हरियाली, धनधान्य, सुख-संपन्नता और आर्थिक खुशहाली का इस त्यौहार से घनिष्ठ सम्बंध रहा है. माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं,उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है.बुग्याल
कैसे बोया जाता है हरेला?
हरेले में बोए जाने वाले बीजों को ‘सतनाजा’ कहते हैं अर्थात सात प्रकार के अनाजों का बीज, जिसमें जौ, मक्का, गेहूं, धान, मूँग, गहत, रैंस, पीली सरसों, सोयाबीन
आदि फसलों से कोई भी उपलब्ध सात बीज बोए जा सकते हैं. कुमाऊं के अधिकतर क्षेत्रों में काला बीज नहीं बोया जाता है परन्तु कई जगह मास या उड़द आदि काला बीज भी बोया जाता है. कहीं कहीं पांच प्रकार के बीज-धान, जौ, मक्का, गेहूं, सरसों या मास बोने की प्रथा भी है.हरेला उगाने के लिए अनाज के बीज छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में बोए जाते हैं. टोकरियां बाजार में नहीं मिलने के कारण आजकल महानगरों में मिठाई के खाली डिब्बों में
भी हरेला बोने का रिवाज चल पड़ा है. हरेले की प्रतिदिन पूजा के बाद नियमानुसार सुबह-शाम पानी दिया जाता है. धूप की रोशनी न मिलने के कारण ये अनाज के पौधे पीले हो जाते हैं. 10वें दिन संक्रान्ति को हरेला काटा जाता है. घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में सबसे पहले हरेला चढ़ाया जाता है और फिर घर के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग बच्चों, युवाओं, पुत्र, पुत्रियों, नाती, पोतों के पांवों से छुआते हुए ऊपर की ओर शरीर पर स्पर्श कराते हुए हरेले की पत्तियों को शिर में चढ़ाते हैं तथा आशीर्वाद देते हुए कहते हैं-बुग्याल
“जी रये,जागि रये,तिष्टिये,पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो,ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव,
धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो,
स्यू जस पराण हो.”
बुग्याल
अर्थात् “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा
परिवार फूले और फले. जब तक कि हिमालय में बर्फ है, गंगा में पानी है, तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें. आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े बन जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो”बुग्याल
वर्ष में तीन बार बोया जाता है हरेला
उत्तराखण्ड कृषि प्रधान क्षेत्र होने के कारण किसी जमाने में ऋतुओं का स्वागत हरेले के पर्व के द्वारा किए जाने की परम्परा रही थी. हरेले का पर्व नई ऋतु के शुरु होने की सूचना का पर्व भी है,
उत्तराखण्ड में मुख्यतः तीन ऋतुएं होती हैं- शीत, ग्रीष्म और वर्षा. यहां मौसम का मिजाज प्रायः बदलता रहता है. कुमाऊं अंचल में इसी मौसम के शुभाशुभ की संभावनाओं के पू्र्वानुमान को जानने समझने के लिए हरेला वर्ष में तीन बार बोया और काटा जाता है. ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास से होती है, सो पहली बार चैत्र माह के प्रथम दिन हरेला बोया जाता है और नवमी के दिन काटा जाता है. वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण (सावन) माह से होती है, इसलिये दूसरी बार श्रावण माह लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण माह की एक गते को हरेला काटा जाता है. शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास से होती है, सो तीसरी बार आश्विन नवरात्र के पहले दिन हरेला बोया जाता है, और दशहरे के दिन काटा जाता है.बुग्याल
श्रावण हरेले का खास महत्त्व क्यों?
वर्षाऋतु के श्रावण मास की संक्रांति को बोये जाने वाले हरेले का विशेष महत्त्व है. इसी दिन सूर्यदेव दक्षिणायन तथा कर्क से मकर रेखा में प्रवेश करते हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार
श्रावण का महीना शिव की पूजा अर्चना का भी पवित्र महीना है. हरेला, हरियाली अथवा हरकाली आदि ऐसे शब्द हैं जो बताते हैं कि हरेला का सम्बंध खेतीबाड़ी से जुड़ी हरियाली से है जिसे शिव पार्वती की अनुकंपा से ही प्राप्त किया जा सकता है. पौराणिक जनश्रुतियों के अनुसार शिव पत्नी सती को अपना कृष्ण वर्ण नहीं भाता था, इसलिए वह इसी दिन अनाज के हरेले पौधों की आकृति को धारण करके गौरा रूप में अवतरित हुई थीं. इस पर्व को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है.इसलिए कुछ स्थानों में हरेले के दिन शिव पार्वती की सपरिवार पूजा की जाती है और उन्हें हरेला चढ़ाया जाता है.बुग्याल
कृषि-वानिकी का वार्षिक अभियान
उत्तराखंडवासियों के लिए ‘हरेला’ का पर्व मात्र एक संक्राति नहीं बल्कि कृषि तथा वानिकी को प्रोत्साहित करने वाला हरित क्रान्ति का वार्षिक अभियान भी है जिस पर इस क्षेत्र के लोगों की
जीविका और खुशहाल जीवनचर्या भी टिकी हुई है.इस पर्व के साथ उत्तराखंड राज्य का चिर प्रतीक्षित खेती और बागबानी को प्रोत्साहित करने का लोक कल्याणकारी संकल्प भी जुड़ा है,जो आज तक पूरा नहीं हो सका है.बुग्याल
दरअसल, हरेला की संक्रांति उत्तराखंड के आर्य किसानों का पहाड़ी और पथरीली धरती में हरित क्रान्ति लाने का लोकपर्व है. किसी जमाने में हरेला पर्व से ही आगामी साल भर के कृषि कार्यों का
शुभारम्भ धरती पर हुआ करता था. सावन-भादो के पूरे दो महीने हमें प्रकृति माता ने इसलिए दिए हैं ताकि बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना सकें, उसे शाक-सब्जी उगा कर हरा भरा रख सकें. धान की रोपाई और गोड़ाई के द्वारा इन बरसात के महीनों का सदुपयोग किया जा सकता है.बुग्याल
मगर चिंता का विषय यह भी है कि समस्त उत्तराखंड में आज जल संकट और पलायन की विभीषिका के कारण हरेले का यह त्यौहार फीका, प्रायोजित और रश्म अदायगी का त्यौहार बन कर रह गया है. हरित क्रांति का यह पर्व धूमिल इसलिए भी पड़ गया है कि परंपरागत खाल, तालाब आदि जलभंडारण के स्रोत सूख गए हैं.
खेती और बाग बगीचों की सिंचाई की बात तो दूर रही, लोग पेयजल की समस्या से ही जूझ रहे हैं. प्रकृति की मेहरबानी से बरसात में पेड़ पौधों में जो फलफूल आते हैं और घर के आंगन में शाक सब्जियां उगती हैं उन पर भी चौबीसों घन्टे बंदरों और सूअरों का आतंक मंडराता रहता है.बुग्याल
पलायनवाद खेती के लिए अभिशाप
आज कभी सोना उगलने वाली पहाड़ की खेती पानी के अभाव और पलायनवाद के कारण सूअर,बंदर और जंगली जानवरों के हवाले कर दी गई है. हमारे पूर्वजों के अधिकांश
मकान या तो खंडहर बन चुके हैं या फिर उन पर ताला जड़ा हुआ है. पहाड़ में यहां भी जो लोग रह रहे हैं अधिकांश लोंगों की खेती बाड़ी जीविका नहीं रही है,राशन की दुकानों से उनकी गुजर बसर चलती है. ज्यादातर लोग सस्ते सरकारी अनाज के भरोसे जी रहे हैं. फिर भी कुछ ऐसे कर्मठ लोग अभी भी पहाड़ में हैं जो परम्परागत खेती को जीवित रखे हुए हैं. उनके कठोर परिश्रम और पुरुषार्थ के द्वारा पहाड़ की इस बंजर भूमि को आज भी उपजाऊ बनाया जा रहा है.बुग्याल
पिछले वर्षों जब में हरेले के मौके पर अपने गांव से ऊपर सुरे गांव होकर दाणूथान की तरफ गया तो रास्ते में मुझे हरे भरे खेतों के भी दर्शन हुए. कहीं मंडुवे की पौध जमी हुई थी,तो कहीं पर गौहौत (कुल्थी), रैंश (राजमाश) और दूसरे अनाजों के हरे भरे खेतों को देखने का मौका मिला. इन खेतों की हरियाली से मेरा मन हरेला
की वास्तविक ख़ुशी से पुलकित हो उठा. मेरी नजर में ये ही उत्तराखंड के किसान असली राष्ट्रभक्त हैं जो कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी मातृतुल्य भूमि माता की सही मायने में आराधना कर रहे हैं. हमारे ऋषियों ने ‘माता भूमि: पुत्रोsहम् पृथिव्या:’ नामक वैदिक मन्त्र द्वारा हजारों वर्ष पूर्व जो राष्ट्रभक्ति का सन्देश देशवासियों को दिया था उसे ये सुरे ग्राम वासी किसान मनसा, वाचा, कर्मणा इस उत्तराखंड की धरा पर उतार रहे हैं.बुग्याल
आजकल पहाड़ों में आम नाशपातियों के फसल की बहार आई हुई है. किंतु सूअरों और बंदरों के उत्पात के कारण शाक सब्जियां और आम इत्यादि फल सुरक्षित नहीं हैं.
रात के समय सूअर और दिन के समय बंदर पूरे दलबल के साथ आते हैं और फल फूल,अनाज,शाक सब्जियां सब कुछ उजाड़ कर चौपट कर जाते है. गांवों में निर्जनता पसरी हुई है.कुछ वृद्ध लोगों,बच्चों और महिलाओं के द्वारा दल बल से आए इन उत्पाती बंदरों को भगाना मुश्किल होता है.बुग्याल
ऐसा लगता है पहाड़ में जंगलराज छाया
हुआ है और इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय सरकार के पास नहीं है.बुग्याल
ऐसे में मुझे गढ़कवि जयसिंह रावत ‘जसकोटी’ की एक कविता स्मरण आ रही है,जिसमें कहा गया है कि जो आज पहाड़ से पलायन करके प्रवासी हो गए वे दिल्ली में बैठकर अपनी भाषा और लोकसंस्कृति को बचाने का रोना रो रहे हैं मगर दूसरी ओर जो पहाड़ों में बसे हैं वे भी टीवी देखते हुए मनरेगा के पैसे से दो रुपया गेहूं
और तीन रुपया चावल खा कर मौज ले रहे हैं.खेती बाड़ी की चिंता किसी को नहीं न सरकार को और न यहां रहने वाली जनता को. जयसिंह रावत जी की राष्ट्रवादी कविता ‘पाणी जनि प्रदेश म ब्वग्नि च जवानी’- मिट्टी से जुड़े हम सब लोगों की आंख खोलती है और उन छद्म राष्ट्रवादियों और विकासवादियों की पोल भी खोलती है जो इस सस्यश्यामला धरा को बंजर भूमि बनाने के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं-बुग्याल
पाणी जनि प्रदेश म
ब्वग्नि च जवानी
हर्चिगेनी डाँड्यूं की सुरीली
नि दिखेणी मोरुयुं क घिंडुड़ी
नि सुनेनी चखुलों क चुचयाट
नि हूंद अब विनसर म खर्खराट
एख रैगे रौला गद्न्यु क सुस्याट
जंगली सुअर बंदरु की चौखायट
बुग्याल
डंडेली तिवरी
पुंगड़ी पटली बाँझे गयेनी स्यार
गौ क गौ ह्यवगेनी खाली
पाणी जनि प्रदेश म ब्वग्नि च जवानी
बच्या खुच्या गढ़ क द्वार पैर पसारी
बूढ़ बुढया वख काना छी जगवली
क्यांकु स्वाद अर कैकी रस्याण
बुग्याल
कैकु रूडी भूड़ी कैकु बस्ग्याल
छोड़ीयाली गोरु बछरू खेती बाड़ी
रात दिन बैठयाँ छि टीवी अगाड़ी
जुगराज रै सरकार नै स्कीम लाणा कु
द्वी रुपया गेहूँ तीन रुपया चौल् खाड़ा कु
मनरेगा अर प्रधानी कु पैसा छि काम आणा
बुग्याल
लैरे पैरे क रोज छी बाजार जाणा
दिली म बैठीक उत्तराखंडी छि चिल्लाणा
अपड़ी भाषा बोली अर संस्कृति थै बचाणा
नै जनरेशन क नै सोच कख छि जाणा
सभी धाणी बिसराई याल नि छि चिताडा
लेखक- जय सिंह रावत ‘जसकोटी’
बुग्याल
दरअसल, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के संकल्पों को दर किनार करते हुए हमारे राजनेता आज पूरी तरह से भूल चुके हैं कि मातृभूमि को तभी खुशहाल बनाया जा सकता है जब उसकी धरती
में हल चले, गांव के खेत खलिहान पशुधन से समृद्ध हों, नवयुवकों को रोजगार मिले, लोग अनाज की दृष्टि से आत्मनिर्भर हों,सरकार के सामने भीख मांगने और खैरात बटोरने के लिए मजबूर न हों. मगर पानी ही नहीं है तो खेती बाड़ी कैसे करेंगे? प्रदेश का दुर्भाग्य है कि उत्तराखंड की शस्यश्यामला धरती को हमारे नेताओं ने पानी के अभाव में कृषिविहीन कर दिया और ग्राम संस्कृति की सारी रौनक मिटा कर रख दी है.बुग्याल
आज उत्तराखंड में राज्य का अपना सारा बजट ठेकेदार माफियों और शराबमफ़ियों और नौकरशाहों की जेब में जा रहा है जिसकी वजह से कृषि विकास और रोजगार के धंधे समाप्त हो गये हैं.पानी के
जलस्रोत सूख चुके हैं. नेताओं की मौज है और जनता स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसी मूल सुविधाओं के अभाव के कारण यहां से भारी मात्रा में पलायन करती जा रही है. यही है आज के उत्तराखंड की दुरवस्था जो हर विचारशील व्यक्ति को इस हरित क्रांति के पर्व हरेले के अवसर पर व्यथित कर रही है.बुग्याल
अंत में कहना चाहुंगा कि आज चाहे जितनी भी विपरीत परिस्थितियां रहीं हों हरित क्रान्ति के इस अभियान पर विराम नहीं लगना चाहिए. हरेले का मातृ-प्रसाद हमें साल में एक बार संक्राति के
दिन शिरोधार्य करने को मिलता है परन्तु धरती माता की हरियाली सम्पूर्ण राज्य की खुशहाली के लिए पूरे साल भर चाहिए. सुदूर अतीत में वैदिक आर्यों का यह मूल निवास स्थान उत्तराखंड कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण हमारे पूर्वजों ने यहां साल में तीन बार हरेला बोने और काटने की परंपरा का सूत्रपात किया और सबसे पहले धान की खेती के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं उत्तराखंड के आर्य किसानों को जाता है. इन्हीं संवेदनाओं के साथ हरेले की शुभकामनाएं.बुग्याल
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)