- स्वीटी टिंड्डे
चार सौ साल पहले आपका ‘सरनेम’ से नहीं आपके मूल नाम से पहचान होती थी. नैन सिंह (रावत) जी अपना नाम में रावत नहीं लगाते थे, उनके पिता, दादा, परदादा और उनके भी पूर्वज न तो सिंह लगाते थे और न ही रावत लगाते थे. अपने नाम
के आगे ‘सरनेम’ तो भगवान राम से लेकर रावण, अकबर से लेकर बीरबल, सम्राट अशोक से लेकर चंद्रगुप्त और शिवाजी भी नहीं लगाते थे. जिन्हें टाइटल लेना होता था वो अपनी उपलब्धि के उपलक्ष्य में टाइटल लेते थे वो भी नाम के पहले. जैसे मर्यादा-पुरुषोत्तम, राम के लिए; सत्यवादी, हरिश्चंद्र के लिए; छत्रपति का टाइटल शिवाजी के लिए, सर का टाइटल रवींद्रनाथ टैगोर के लिए, और डॉक्टर का टाइटल PhD करने वालों के लिए. पर ये जाति का टाइटल हमने कब से लेना शुरू कर दिया. क्या हमारा आधुनिक समाज अपनी जाति के प्रति अधिक सजग व जागरूक होता गया?यूसर्क
अब नैन सिंह जी के पूर्वजों के नाम को गौर से देखिए उनके नाम में आपको हिंदी या उर्दू भाषा का कोई अंश नहीं मिलेगा पर नैन सिंह के पिताजी का काल आते-आते उनके नामों में
आपको राजपूती हिंदी (नागपुर, मेवाड़, बुंदेलखंड आदि क्षेत्र) का प्रभाव दिखने लगता है. समय का चक्र जैसे-जैसे आगे बढ़ता हैं वैसे-वैसे हिंदी का प्रभाव बढ़ता चला जाता है और उसके साथ बढ़ता है सरनेम लगाने का प्रभाव. इसका भी एक मज़ेदार इतिहास है.यूसर्क
असल में सारा मामला शुरू होता है 1860 के दशक में जब ब्रिटिश सरकार हिंदुस्तान में जनगणना करना शुरू करती है. जनगणना के दौरान जाति के सवाल पर पर ज्यादातर भारतीय
अपने कुल, खूँट, वंश, खानदान, गोत्र, उपजाति के नाम बता देते थे जिससे जनगणना करने वाले कन्फ़्यूज़्ड हो जाते थे. इस समस्या से बचने के लिए अंग्रेजों ने व्यक्ति के सरनेम के आधार पर उनका जाति वाला कॉलम भरने लगे और उनकी पहचान नाम से अधिक उनके सरनेम से होने लगी.अगर आप ब्राह्मण है तो क्लर्क का काम मिलेगा,
बानियाँ है तो लेखपाल का, क्षत्रिय हैं तो सेना में…. कभी-कभी किसी ख़ास जाति के लोगों को ये ख़ास क्षेत्र में नौकरी देने से पाबंदी लगा देते थे तो कभी जाति के नियमों के विरुद्ध जाकर किसी ख़ास जाति को नौकरी देते थे.
यूसर्क
अंग्रेजों के लिए हिंदुस्तानियों का जाति जानना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया था क्योंकि शुरुआती दौर में अंग्रेजी सरकार भारतीयों को नौकरी देने या न देने का फ़ैसला उनके जाति के आधार पर ही करती थी. अगर आप ब्राह्मण है तो क्लर्क का काम मिलेगा,
बानियाँ है तो लेखपाल का, क्षत्रिय हैं तो सेना में…. कभी-कभी किसी ख़ास जाति के लोगों को ये ख़ास क्षेत्र में नौकरी देने से पाबंदी लगा देते थे तो कभी जाति के नियमों के विरुद्ध जाकर किसी ख़ास जाति को नौकरी देते थे. उदाहरण के तौर पर 1857 के विद्रोह के बाद उत्तर भारत के भूमिहार जाति के लोगों को सेना में नौकरी से पाबंदी लगा दिया गया क्योंकि मंगल पांडे समेत ज्यादातर विद्रोह करने वाले भूमिहार जाति से थे.यूसर्क
1890 का दशक आते आते भूमिहारो ने भूमिहार सभा बनाई और अपने आप को ब्राह्मण साबित करने पर तुल गए, अपने सरनेम में शर्मा, उपाध्याय, आदि लगाने लगे, ताकि
सेना में नौकरी से वंचित किए जाने के बाद उन्हें ब्रिटिश सरकार में क्लर्क की नौकरी पाने के लिए ब्राह्मण होना ज़रूरी था. वही महाराष्ट्र का महार जाति जो तथाकथित शूद्र-अछूत समाज से थे उन्हें सेना में जगह दी गई और महार रेजिमेंट बनाया गया.- स्त्रोत: 1) शेखर पाठक द्वारा लिखित "पंडितो का पंडित: नैन सिंह रावत की जीवन गाथा & quot;
- 2) सेंसस रिपोर्ट ऑफ़ इंडिया, वर्ष 1863, 1864, 1866, 1871, 1881, 1891 और 1901
- 3) एच एच रिजले द्वारा वर्ष 1891 में लिखित “ट्राइब्स एंड कास्ट ओफ़ बंगाल”
(स्वीटी टिंड्डे अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन (श्रीनगर, गढ़वाल) में कार्यरत है. tinddesweety@gmail.com
पर इनसे सम्पर्क किया जा सकता है.)