हिमालय पुत्र पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा जी का यों चले जाना…
- डॉ. गिरिजा किशोर
सच पूछिए तो आज हिमालय अपने हितों के लिए प्रकृति का दोहन करने वाले आक्रांताओं से बड़ा भयभीत हैं. आज हम हिमालय के जंगलों को पत्थर, लकड़ी, लीसा के दोहन और नदियों को करोड़ों की प्यास बुझाने के लिए पानी और कल-कारखाने चलाने के लिए बिजली देने वाला यंत्र से ज्यादा कुछ नहीं मानते. सत्ता के नीति
निर्धारकों द्वारा हिमालय के जंगलों की बेतहाशा कटाई और हिमालय की नदियों में बेतहाशा बड़े-बड़े बांध बनाकर हिमालय के विनाश की पटकथा अनवरत लिखी जा रही है. परिणामत: हिमालय और हिमालय वासियों का जीवन खतरे में आ गया है. नदियां विकराल रुप धारण करती जा रही है. जंगलों के उजाड़ के कारण पहाड़ दरकने लगे हैं. गांव के गांव इस जल तांडव में विलुप्त होने लगे हैं. हिमालय और हिमालयी प्रकृति और प्रवृति के इस दर्द को समझा हिमालय के छोटे से गांव के सामाजिक कार्यकर्ता सुंदर लाल बहुगुणा ने.यूसर्क
स्थानीय कलाकारों और गायकों के वाद्य यंत्रों के साथ चिपको आंदोलन के गीतों से हिमालय गूंजने लगा. उनकी प्रेरणा से जंगल काटने वाले व्यापारियों, ठेकेदारों के विरुद्ध
महिलायें पेड़ों पर चिपक जाती और पेड़ काटने से बचा लेती. यह आंदोलन उत्तराखण्ड के गांव-गांव में फ़ैल गया. सरकार और ठेकेदार परेशान हो गये. अन्तत: जंगलों की कटाई पर रोक लगी.
यूसर्क
उनका कहना था कि सत्ता, नौकरशाही
और ठेकेदार जल, जंगल और हिमालय के रिपु हैं. इस वर्ग की जंगल की परिभाषा है-“क्या है जंगल के उपकार, लीसा लकड़ी और व्यापार”.
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इसके प्रत्युतर में जल, जंगल और जमीन
की लड़ाई के नायक बहुगुणा जी ने नारा दिया कि-“क्या है जंगल के उपकार, मिटृटी, पानी और बयार”.
मिट्टी पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार. “उत्तराखण्ड के अधिकांश पुरुष और युवा मैदानी क्षेत्रों में अध्ययन और रोजी-रोटी के लिए चले जाते हैं. यहां का 90% सामाजिक, आर्थिक
और सांस्कृतिक का तानाबाना महिलाओं के हाथ में रहता है. सत्तर के दशक में मनीआर्डर के भरोसे चलने वाली उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था को उन्होंने ‘मनीआर्डर इकानामी’ नाम दिया था.यूसर्क
पहाड़ की महिलाओं और बच्चों के साथ-साथ सुंदरलाल बहुगुणा जी ने हिमालय के दर्द को भी समझा. यहां के जल, जंगल, जमीन के विनाश के विरूद्ध गौरा देवी, चंड्डी प्रसाद भट्ट और हजारों
माताओं, बहिनों की सहभागिता को नेतृत्व देकर 1970-80 के बीच चिपको आंदोलन खड़ा किया. बहुगुणा मानते थे कि पहाड़ की नारी हिमालय और जंगल को अपना मायका मानती है क्योंकि उन्हें घर के लिए लकड़ी, पशुओं के लिए चारा, पीने का जल केवल जंगल से ही मिलता है. मायके की रक्षा के लिए उन्होंने हजारों महिलाओं को नेतृत्व दिया.यूसर्क
स्थानीय बोली में हस्तलिखित सैकड़ों नारे पोस्टर लिख कर गांव-गांव के लोग अपनी बात सामने रखने लगे. स्थानीय कलाकारों और गायकों के वाद्य यंत्रों के साथ चिपको आंदोलन के गीतों
से हिमालय गूंजने लगा. उनकी प्रेरणा से जंगल काटने वाले व्यापारियों, ठेकेदारों के विरुद्ध महिलायें पेड़ों पर चिपक जाती और पेड़ काटने से बचा लेती. यह आंदोलन उत्तराखण्ड के गांव-गांव में फ़ैल गया. सरकार और ठेकेदार परेशान हो गये. अन्तत: जंगलों की कटाई पर रोक लगी.यूसर्क
बहुगुणा जी को हिमालय की मिटृटी और पहाड़ों की गहरी जानकारी थी इसलिए वे हिमालय क्षेत्र में बड़े बांधों के विरोधी थे. उनका मानना था कि जंगल विहीन पहाड़ रोज दरक रहे हैं.
एक बड़ा बांध सौ साल तक आपको जल दें सकता है, खाद भर जायेगी फिर सौ साल बाद क्या होगा? अतः जल और नदियों को बचाना है तो हिमालय को वनाच्छादित करना ही होगा. इसी कारण उन्होंने भागीरथी पर बने एशिया के विशालतम टेहरी बांध का विरोध ताउम्र किया. हिमालय के लोगों में यहां की मिट्टी, पानी और बयार के संरक्षण के प्रति जागृति लाने के लिए उन्होंने कश्मीर से कोहिमा तक यात्रा की.यूसर्क
हिमालय की रक्षा और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरुकता के लिए उन्होंने पूरे उत्तराखण्ड का भ्रमण किया. सर्वप्रथम
मुझे 1975 में विद्यार्थी के रुप में कांडा इंटर कालेज में उनके विचार सुनने का मौका मिला था. उस समय कटते पेड़ों और पहाड़ में पीने के पानी की किल्लत का दर्द तक की बात हम सबके समझ में बात आयी थी. 1982 में काशी हिन्दू वि विद्यालय में पर्यावरण पर एक संगोष्ठी हुई थी तब तक हम कुछ समझने योग्य हो गये थे और वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हिमालय और पर्यावरण की बात करने वाले क्रांतिकारी चिंतक के रूप में प्रसिद्धि की ओर अग्रसर हो चुके थे. उनके भाषण को सुनने राष्टीय और अंतर्राष्ट्रीय सारे विशेषज्ञ आतुर रहते थे.यूसर्क
पहली बार मैंने उनके पर्यावरण संबन्धी विश्वकोष को जाना और समझा. उस समय हिमालय के प्रति समर्पण और वैज्ञानिक सोच के कारण विश्वपटल पर उनकी पहचान एक महान पर्यावरणविद
के रुप में होने लगी थी. अपनी बात को वैज्ञानिक तथ्यों के साथ वे भू-वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के समक्ष सहज और सरल भाषा में ब्यवहारिक ज्ञान के साथ रखते थे. जिसका सैद्धांतिक अध्येताओं के पास कोई तोड़ नहीं था.यूसर्क
हिमालय की रक्षा और वहां के रहवासियों की
उनको गहरी समझ थी. वे हिमालय के लोगों का दर्द भी समझते थे तथा मानव और प्रकृति के सहअस्तित्व के लिए भी वे चिंतित रहते थे.हिमालय को वृक्षों से हरा भरा देखना चाहते थे इसके लिए उनके मन में विशेष कार्ययोजना भी थी.
वे ऐसे वृक्ष हिमालय में लगाना चाहते
थे जो प्रकृति और रहवासियों की बराबर आवश्यकता पूरी करे. यानी लोगों को रोजगार भी मिले जंगल, मिटृटी और जल के साथ प्रकृति भी जीवित रहे. सबको शुद्ध हवा भी मिले. वे काष्ठ फल अखरोट, पांगर, खाद्यबीज बादाम, आड़ू, पोलम, नासपाती, खुमानी, सेव, मधुमक्खियों के पराग हेतु पय्या, पशुओं के चारे के लिए, खाद पत्तों के लिए बाज, फयाठ, बुरांस, कपड़ों के लिए रेशे वाले वृक्ष को लगाने के पक्षधर थे.यूसर्क
बहुगुणा ऐसे पर्यावरणविद थे जो आम आदमी की भाषा बोलते थे, आम आदमी के बीच से उठे थे. उनका खाना –पीना, जीना सब माटी के लोगों की तरह था. हजारों जन समस्याओं को वे
सत्ता की चौखट तक ले जाते थे. वे सहज थे पर अपने संकल्प में वज्र की तरह कठोर थे. आम आदमी को अपनी बात गजब ठंग से समझा लेते थे. उनका सत्ता के खिलाफ गांधीवादी तरीके से लड़ने का हथियार भी सर्वग्राह्य था. सारे विश्व में जल, जंगल और जमीन के लिए संधर्षरत मानवता की गूढ़ समझ रखते थे. इन सबके कारण वे हिमालय और पर्यावरण प्रेमियों के वे हीरो थे.यूसर्क
सेवाकाल के दौरान मेरा कई बार
उनसे संपर्क होता रहा सहजता की वे चलती फिरती पाठशाला थे. एक लम्बे अर्से के बाद मुझे उनके दर्शन का मौका नवंबर 20 में देहरादून यात्रा के दौरान मिला था, तब तक वे किसी को पहचान नहीं पा रहे थे. दुर्भाग्य कि यह अंतिम दर्शन थे.यूसर्क
उनका संघर्ष हिमालय के जल जंगल के साथ-साथ यहां के लोगों की अन्योन्याश्रितता को सहज बनाने के लिए था. इस संघर्ष में उन्हें बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ा पर वे सही
मावंटेन मैन थे. हिमालय पुत्र के रुप में वे प्रवाह के विरुद्ध चलने में निपुण थे. उन्होंने अपने इस संधर्ष की सफलता के रहस्य का खुलासा लखनऊ में 1986 के राजेन्द्र प्रसाद व्याखान माला में दिये भाषण में किया था. उन्होंने कहा था कि- ‘प्रवाह के विरुद्ध चलने पर उपेक्षा, अलगाव और अपमान को सहने की आदत बनानी पड़ती है.’यूसर्क
गंगा के निर्मल प्रवाह और गंगा किनारों के जंगल और मिट्टी की चिन्ता करने और उसके लिए एक लम्बी लड़ाई लड़ने वाले इस महापुरुष ने 21 मई को में गंगा के तट पर ऋषिकेश एम्स में
अपनी पंचतत्वीय देह को हमेशा के लिए त्याग दिया. दुनियां की हर जंग को जीतने वाले ये महायोद्धा कोरोना की जंग से हार गये. उनकी अनन्त यात्रा के बाद इस रिक्तता को कौन भर पायेगा जबकि आज हिमालय अपने अस्तित्व के सबसे कठिन दौर में है. नदी और पहाड़ सब मानवीय जोर-जबरदस्ती का बदला ले रहे हैं. हर साल हिमालय के आक्रोश से सैकड़ों लोग मर रहे हैं हर साल भूस्खलन से कई गांव मलवे में विलुप्त हो रहे हैं. लेकिन हम पहाड़ों के दोहन से पीछे नहीं हट रहे हैं. शायद इसलिए भी कि लोकतंत्र के गणित में यहां बड़ा वोटबैंक नहीं है.यूसर्क
एक पंचेश्वर बांध की तैयारी फिर चल रही है. लोगों को दर्द है. वे मानते थे कि पलायन से आर्थिक समाधान भले ही मिल जाये पर विस्थापितों को मनोवैज्ञानिक समाधान कभी नहीं मिलता.
उनके जाने का दुख पर्यावरण की चिंता करने वालों हर भारतीय को है. लेकिन नियति को कौन टाल सकता है. एक प्रश्न हमें जरूर विचलित कर रहा है कि हिमालय के हक विशेष रुप से हिमालय की महिलाओं, मिट्टी, पानी और बयार के संरक्षण की लड़ाई अब कौन लड़ेगा?यूसर्क
(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में काशी हिन्दू विश्व विधालय से पीएचडी, संयुक्त राष्ट्र संघ में यूरोप में सेवा के दौरान पहाड़ी राष्ट्रों के विकास का विशेष अनुभव. गाँव और पहाड़ की समस्याओं पर चिंतन एवं लेखन के साथ—साथ विभिन्न समाचार पत्रों में संपादकीय लेखन एवं अखिल भारतीय एवं राज्य की एकडमियों/विश्वविद्यालयों/संस्थाओं में आख्यान.)