भारत में सिनेमा के सवा सौ साल (7 जुलाई, 2021) होने के अवसर पर विशेष
- प्रो. गिरीश्वर मिश्र
आज सिनेमा ज्ञान, चेतना
और सामाजिक जागरूकता, मूल्य बोध, परवरिश के तौर तरीकों को आकार देने वाली शक्ति के रूप में स्थापित हो चुका है. भारत में नाटकों की परम्परा तो पुरानी है, लगभग दो हजार साल पहले से संस्कृत और प्राकृत के नाटक मिलते हैं. कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त, भास और भवभूति के नाटक अद्भुत हैं. पर यथार्थ की चाक्षुष और श्रव्य कथात्मक अभिव्यक्ति करता सिनेमा समाज की सांस जैसा सिनेमा दर्पण का काम करता है और उसे देख क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है इसका पता चलता है.संस्कृति
सिनेमा के जरिये साथ एक समानांतर संस्कृति विकसित हो रही है जो मनोरंजन के साथ साथ, वेश-भूषा और फैशन की प्रवृत्ति को तय करने के साथ बहुत सारे विषयों पर नजरिये को भी प्रभावित करती है. मसलन प्रेम, सेक्स, आपसी रिश्ते, हिंसा, व्यसन, असंतोष, आतंक, संघर्ष, स्त्री अधिकार, इतिहास, और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध
तक के मसलों को ले कर सशक्त और सजीव अभिव्यक्ति के सहारे फ़िल्में बड़े ही प्रभावी ढंग से लोगों को सूचित करती हैं और उनके सोचने की दिशा तय करती हैं. आज मीडिया में बहुत से लोग इस हद तक खोते जा रहे हैं कि अगल बगल क्या हो रहा है इसका उन्हें कोई अंदाज ही नहीं रहता. हाव भाव, बातचीत का लहजा सबमें बदलाव देखा जा सकता है. आज अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की प्रतिष्ठा की पूंजी के सहारे उत्पादों का विज्ञापन बाजार में बढ़त बनाने के लिए अनिवार्य हो गया है.संस्कृति
भारत में सिनेमा की शुरुआत तब हुई जब फ़्रांस से आस्ट्रेलिया जाने की राह में ल्यूमियर बंधुओं ने बंबई में पड़ाव डाला. उन लोगों ने पहली बार दर्शकों को परदे पर चलते-फिरते चित्र या फिल्म दिखाई. सात जुलाई 1896 को वाटसन होटल मुंबई में यह पहला फिल्म-प्रदर्शन हुआ. छोटी-छोटी कुल छः फ़िल्में दिखाई गईं. इनमें से
कुछ के विषय इस तरह थे– ‘फैक्ट्री से घर जाते मजदूर’, ‘रेल (ट्रेन) का आगमन’, और ‘बगीचे में फूल सीचते माली’ आदि. जनता के बीच इस सफलता को देख यूरोप के कई फिल्म निर्माताओं ने भारत में चलचित्र दिखाने में रूचि ली और यहाँ पर उन्होंने फिल्मी फोटोग्राफी भी शुरू की. वर्ष 1897 में ‘हमारा भारतीय साम्राज्य’ नामक फिल्म दिखाई गई. उस दौरान कई बार नाटक के प्रदर्शन के बाद फिल्म को दिखाया जाता था और लोग इस अचम्भे को देख बड़े खुश होते थे.संस्कृति
रंगमंच और फोटोग्राफी से जुड़े लोग इस विधा की तरफ आकर्षित हुए. इस दृष्टि से पारसी थिएटर की खास भूमिका थी. साथ ही चित्रकला का भी असर था. प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा के
बनाए नल-दमयंती, हरिश्चंद्र-तारामती, शांतनु-गंगा, और कृष्ण-जन्म आदि पौराणिक शीर्षक वाले चित्रों ने मूक सिनेमा को एक ठोस आधार दिया. हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर ने इंग्लैण्ड से कैमरा मंगाया और 1899 में ‘रेसलर’ फिल्म शूट की. तब फिल्म सिर्फ रिकार्डिंग भर होती थी. मूक या अवाक वृत्तचित्र के क्रम में रामचन्द्र गोपाल टोर्ने ने ‘पुन्ड़लीक’ फिल्म बनाई जो 1912 में प्रदर्शित हुई. यह प्रस्थान विन्दु थी और इसमें विदेशी कलाकार और टेक्नीशियन भी जुड़े थे. इसके बाद के दस सालों में मूक सिनेमा की धूम मच गई.संस्कृति
भारतीय फिल्म जगत के पुरोधा के रूप में ख्यात दादा साहेब फाल्के ने 3 मई 1913 को ‘राजा हरिश्चंद्र’ प्रदर्शित की. इसके बाद तो कई धार्मिक-पौराणिक विषयों को ले कर
फ़िल्मों जैसे कृष्ण-जन्म, शकुन्तला, भक्त प्रहलाद, तथा संत ज्ञानेश्वर आदि की झड़ी लग गई. आदर्श चरित्रों की महानता का सन्देश जन -जन तक पहुंचाना इनका मुख्य उद्देश्य था. शुरू में स्त्री पात्र की भूमिका भी पुरुष करते थे. दादा फाल्के के निर्देशन में कुल पचीस फ़िल्में बनीं. ये फ़िल्में सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आन्दोलन सी बन गईं. इन फिल्मों में वेश-भूषा और रूप-सज्जा की ख़ास भूमिका थी क्योंकि आवाज न होने से लोक जीवन में अपने मंतव्य को पहुंचाने के लिए चित्र ही मुख्य औंजार था.संस्कृति
सन 1930 के आस-पास सिनेमा की तकनालाजी ने छलांग लगाई और बोलती फ़िल्में शुरू हुईं. ‘आलम आरा’ ऎसी पहली फिल्म थी और उसे 1931 में प्रदर्शित किया गया. इसमें पृथ्वीराज कपूर, महबूब खान और सुलोचना अदि अभिनेता थे. इस फिल्म में सात गाने थे. आर्देशिर ईरानी की यह सवाक फिल्म दर्शकों के बीच बड़ी
सराही गई और लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गई. ध्वनि और भाषा की उपस्थिति ने इस विधा में जान डाल दी और विषय, कथ्य की परिधि विस्तृत होने लगी. नूर जहां और कर्म (अंग्रेजी में फेट) बनी जिसमें में देविका रानी और हिमांशु राय ने अभिनय किया था. इन लोगों ने बाम्बे टाकीज स्थापित किया जिसके तले अछूत कन्या जैसी कई फ़िल्में आईं. चंडीदास और देवदास भी बनीं.संस्कृति
वी शांताराम की अमर ज्योति, बेरोजगार
और दुनिया न माने जैसी फ़िल्में आईं. तभी किसान कन्या भारत की पहली रंगीन फिल्म आई थी. इस बीच मूक फ़िल्में भी बनती रहीं पर बंद हो गईं. चालीस के दशक में इंडियन पीपुल्स थियेटर असोशिएशन (इप्टा) ने धरती के लाल फिल्म बनाई जिसमें बलराज साहनी भी थे. चेतन आनन्द की फिल्म नीचा नगर को अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी मिली. वी शांताराम की ‘डाक्टर कोटनिस की अमर कहानी’ 1946 में बनी.संस्कृति
स्वतन्त्र भारत के शुरुआती दौर में देश की आशा-आकांक्षा की दुनिया को अभिव्यक्ति का मंच मिला. इसका असर मदर इंडिया, सुजाता , आवारा , बूट पालिश, झनक झनक तोरी पायल बाजे , आनंद मठ, जागते रहो, दो आँखें बारह हाथ, नया दौर, प्यासा जैसी मूल्यबोध को जगाने वाली फिल्मों में दिखता है.
उल्लेखनीय है कि 50 से 60 के बीच गुरुदत्त, राजकपूर, दिलीपकुमार, मीना कुमारी, नरगिस, मधुबाला, वहीदा रहमान आदि विलक्षण प्रतिभा वाले कलाकारों ने सिनेमा को अपनी अदाकारी से नई ऊंचाई और गहराई दी. यह परम्परा निरंतर समृद्ध होती गई. मुग़ल ए आजम जैसी फिल्म ने भव्य काव्यात्मक ऐतिहासिक गाथा रच कर फिल्म की दुनिया को कई तरह से समृद्ध किया.संस्कृति
सत्तर के दौर में सामाजिक क्षितिज पर मोह-भंग शुरू हुआ. सत्ता और समाज के रिश्ते अस्त-व्यस्त होने लगे. शोषण, असंतोष और आक्रोश की प्रवृत्तियाँ मुखर होने लगीं. अमिताभ
बच्चन की दीवार, जंजीर, शोले जैसी अत्यंत सफल फिल्मों का राज समाज की संवेदना की गहरी पकड़ थी. बाद में पा, ब्लैक, और मुकद्दर का सिकंदर में आदि फिल्मों में अमिताभ ने अद्भुत अभिनय किया.संस्कृति
अस्सी का दौर कुछ शान्ति का था
और कई प्रेम कहानियां जैसे एक दूजे के लिए, चश्मे बद्दूर, क़यामत से क़यामत तक आईं. हिंसा भी विषय बना और लोहा, त्रिदेव, तेज़ाब जैसी फ़िल्में भी बनीं. सिनेमा के विकास की कहानी में वैश्वीकरण के बीच अंतर राष्ट्रीय सहयोग भी शुरू हुआ.
संस्कृति
राजेश खन्ना की आराधना, आनंद, बावर्ची, नमक हराम भी उल्लेखनीय थीं. धर्मेन्द्र, शर्मिला टैगोर, देव आनंद जैसे कलाकारों ने चुपके-चुपके, अनुपमा, गाइड जैसी
फ़िल्में दीं. एक भिन्न धारा मृणाल सें से शुरू होती है जो भुवन शोम में दिखी. वासु चटर्जी की सारा आकाश, मणि कौल की उसकी रोटी आदि फिल्मों के साथ समानांतर सिनेमा चल निकला. श्याम बेनेगल की अंकुर और निशान्त जैसी फिल्मों ने नए मानदंड स्थापित किए. नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल आदि की फिल्मों के गंभीर सामाजिक आशय दर्शक को प्रभावित किए बिना नहीं छोड़ते.संस्कृति
अस्सी का दौर कुछ शान्ति का था और कई प्रेम कहानियां जैसे एक दूजे के लिए, चश्मे बद्दूर, क़यामत से क़यामत तक आईं. हिंसा भी विषय बना और लोहा, त्रिदेव,
तेज़ाब जैसी फ़िल्में भी बनीं. सिनेमा के विकास की कहानी में वैश्वीकरण के बीच अंतर राष्ट्रीय सहयोग भी शुरू हुआ. इस क्रम में बनी सांवरिया, माई नेम इज खान, दंगल, बाहुबली, दिल वाले दुल्हनिया ले जांयगे, एक था टाइगर जैसी बड़े बजट की फ़िल्में बनीं. प्रवासी जीवन से जुड़ी स्वदेश, परदेश, आ अब लौट चलें जैसी फ़िल्में भी सार्थक हस्तक्षेप थीं.संस्कृति
यदि अच्छी फिल्म सकारात्मक
बदलाव लाती है तो बुरी फ़िल्में जहर का भी काम करती हैं. उनसे सृजनात्मक प्रेरणा भी मिलती है और सच्चाई भी दिखती है. किशोरों और युवाओं को वे सीधे प्रभावित करती हैं. अब सोशल मीडिया के चलते बच्चे भी फिल्मी कलाकारों के बारे में, उनकी पसंद और उनके जीवन की घटनाओं को लेकर खुद को अद्यतन (अपडेट!) करते रहते हैं.
संस्कृति
सामाजिक सोद्देश्य फिल्मों में थ्री इडियट्स, मुन्ना भाई एमबीबीएस, पान सिंह तोमर, बर्फी, पेड मैन, शुभ मंगल सावधान, तारे जमीं पर और लगान उल्लेखनीय हैं. संघर्षरत स्त्री की मुश्किलों और तनावों के बीच की जीवन यात्रा को पिंजर, पिंक, थप्पड़, जब वी मेट में प्रस्तुत किया गया.
साहित्य से जुड़ी फिल्मों में तीसरी कसम, सूरज का सातवाँ घोड़ा, एक था चंदर एक थी सुधा, सत्ताईस डाउन, रजनी गंधा, पथेर पांचाली, कागज़ के फूल, साहब बीबी और गुलाम, अनुभव, सरस्वती चन्द्र, आविष्कार आदि कुछ अविस्मरणीय फ़िल्में हैं. तथापि कवियों और शायरों को छोड़ कथाकारों और लेखकों को ज्यादा सफलता नहीं मिली और साहित्य तथा सिनेमा का रिश्ता ज्यादा नहीं जमा. पाठक और दर्शक की रूचि की भिन्नता और बड़ी तेजी से सिनेमा एक जटिल संयोजन वाले कला व्यापार का रूप लेता गया जिसमें अनेक किस्म की तकनीकी विशेषज्ञता की भूमिका ख़ास होती गई.संस्कृति
गीतकारों, पट कथा लेखकों, नृत्य निर्देशकों, संगीतकारों, पार्श्व गायकों, ध्वनि विशेषज्ञों और फोटोग्रैफी की बारीकियों के बढ़ने साथ फिल्म-प्रशिक्षण की दिशा में भी कई तरह की पहल हुई.
इन सबसे सिनेमा के निर्माण, निर्देशन और सम्पादन की विधा में परिपक्वता आने लगी. बालीवुड से बाहर क्षेत्रीय फिल्मों का निर्माण भी तेजी से शुरू हुआ. साथ ही कला प्रधान, समानांतर और सोद्देश्य फिल्मों की अनेक धाराओं का भी विकास होने लगा जि नमें वैचारिक रुझान की भी भूमिका देखी जा सकती है.संस्कृति
अर्थात सिनेमा सिर्फ प्रतिविम्ब नहीं रहा, न ही सहलाने दुलराने का व्याज. वह मौलिक दृश्य भी रचने में सक्षम है. यदि अच्छी फिल्म सकारात्मक बदलाव लाती है तो बुरी फ़िल्में जहर का भी काम करती हैं. उनसे सृजनात्मक प्रेरणा भी मिलती है और सच्चाई भी दिखती है. किशोरों और युवाओं को वे सीधे प्रभावित करती हैं. अब सोशल मीडिया
के चलते बच्चे भी फिल्मी कलाकारों के बारे में, उनकी पसंद और उनके जीवन की घटनाओं को लेकर खुद को अद्यतन (अपडेट!) करते रहते हैं. सिनेमा उनकी रुचियों को तय करता है और सांस्कृतिक स्वाद को गढ़ता है. जरूरी है कि इस आखिर भविष्य की राह पर चलने के लिए स्वप्न देखना भी जरूरी होता है.(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)